एन. रघुरामन का कॉलम:अच्छे इंसान सामान्य हालात से परे जाकर देखने की कोशिश करते हैं
अपनी नियमित वॉक के लिए फुटपाथ पर टहलने से पहले की बात है, लगातार हॉर्न बजाते एक कार वाले ने मेरा ध्यान खींचा और मैंने देखा कि वह ड्राइवर ऐसे व्यक्ति को देखकर खीझ रहा है, जिसे उसकी तेज आवाज से फर्क ही नहीं पड़ रहा है। वह पैदलयात्री बेफिक्री से टहल रहा था। उसके कानों में ईयरप्लग भी नहीं थे, शायद वह किसी गहरी सोच में था, इसलिए ये तेज आवाज उसके कानों में नहीं सुनाई दे रही थी। ड्राइवर लगातार हॉर्न बजाए जा रहा था और उस राहगीर के एकदम नजदीक था। मैं फुटपाथ पर लगभग कूदा और उसे अपनी ओर खींचा। कार हमारे नजदीक पहुंची और शीशा नीचे करते हुए ड्राइवर उस पर चिल्लाया, ‘क्या तुम बहरे हो?’ मेरे हाथों के सहारे संभले हुए व्यक्ति ने साइन लैंग्वेज में कहा, ‘मैं सुन और बोल नहीं सकता।’ ड्राइवर को बहुत बुरा लगा, वो इसलिए नहीं कि वह राहगीर भिन्न क्षमता वाला व्यक्ति था, बल्कि इसलिए क्योंकि उसके कहे अपशब्दों का उस पर कोई असर नहीं पड़ा था, जिसकी वजह से उसे चंद सेकंड्स की देरी हो गई थी। वह उसे आगे और भला-बुरा नहीं कह सका क्योंकि मेरे जैसे लोग यह सब देख रहे थे, इसलिए उसने बस इतना कहा कि ‘तब तुम्हें फुटपाथ पर चलना चाहिए, ना कि सड़क पर।’ और गाड़ी का एक्सीलेटर दबाकर आगे बढ़ने की कोशिश करने लगा। लेकिन यह कहकर आगे बढ़ा, ‘कहां-कहां से आ जाते हैं ये लोग।’ जाहिर है कि वह व्यक्ति यह सब नहीं सुन सका और मैंने उसकी बात सुन ली। कार 50 फुट भी आगे नहीं बढ़ पाई क्योंकि आगे उसे रेड सिग्नल पर रुकना पड़ा, जिसके बारे में ज्यादातर लोग जानते हैं कि ये 180 सेकंड का है। मैं उसके पास गया और कहा, ‘तुम्हें पता है, बिना एक शब्द कहे या सुने अपनी पूरी जिंदगी बिताना कितना मुश्किल होता है।’ अपना ज्ञान देकर उसने मुझे टोकने की कोशिश की। लेकिन मैंने कहना जारी रखा, ‘उसकी गलती थी, लेकिन हम उसके प्रति उदार रह सकते हैं, क्योंकि भगवान ने हमें सही-सलामत इंसान बनाया है।’ मेरे आखिरी वाक्य से शायद उसकी गुस्सा शांत हुई और उसने तुरंत सॉरी कहा। और सिग्नल ग्रीन हो गया और वह उस दिव्यांग व्यक्ति की ओर हाथ हिलाते हुए आगे बढ़ गया, जो कि अब फुटपाथ पर चलने लगा था। दो साल पुराना यह वाकिया मुझे तब याद आ गया, जब इस हफ्ते गोवा में आयोजित 55वें इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल ऑफ इंडिया (आईएफएफआई) में तीन फिल्मों की स्क्रीनिंग हुई ः ‘स्ट्राइड’, ‘वेन ऑपर्च्युनिटी नॉक्स द रिक्रूटर्स डोर’ और ‘बियॉन्ड द कोर्ट ः द इंडियन व्हीलचेयर बास्केटबॉल जर्नी।’ इन फिल्मों में ऐसे दिव्यांग लोगों के संघर्ष पर दमदार कहानी है। 28 नवंबर को खत्म हो रहा आईएफएफआई समारोह, पहली बार समावेशी सिनेमाई अनुभव के लिए “सबका मनोरंजन” थीम पर आयोजित किया गया है, जहां उद्घाटन के साथ समापन समारोह में भी लाइव साइन लैंग्वेज का इस्तेमाल होगा, ताकि कार्यक्रम में शामिल सारे दर्शक, इसमें सुनने में अक्षम लोग भी इस उत्सव में पूरी तरह शरीक होकर ऑडियो-विजुअल लुत्फ उठा सकें। यहां प्रदर्शित होने वाली तीन फिल्में ट्रस्ट वायडब्ल्यूटीसी (यस, वी टु कैन!) ने बनाई हैं। इस ट्रस्ट की अध्यक्ष व राष्ट्रीय पैरा तैराकी चैंपियन माधवी लता प्रथिगुडुपु ने खुद सोचा कि मुख्यधारा के मीडिया में विकलांग व्यक्तियों के लिए अवसरों की कमी क्यों है। इसने उन्हें फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया, पुणे के सहयोग से विकलांग व्यक्तियों के लिए एक विशेष पाठ्यक्रम आयोजित करने के लिए प्रेरित किया। दो साल में उन्होंने तीन फिल्में बनाईं और सभी को इस साल प्रतिष्ठित आईएफएफआई महोत्सव में प्रदर्शित किया गया। विकलांग व्यक्तियों ने ही तीनों फिल्मों में विभिन्न भूमिकाएं निभाई हैं, जिनमें अभिनेता, छायांकन सहायक, वॉयसओवर कलाकार और पटकथा लेखक शामिल हैं।
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