राजदीप सरदेसाई का कॉलम:अब महाराष्ट्र में एकछत्र पार्टी के रूप में उभर चुकी है भाजपा
2000 के दशक की शुरुआत में, भाजपा नेता दिवंगत प्रमोद महाजन से पूछा गया था कि उनकी पार्टी महाराष्ट्र में शिवसेना से जूनियर पोजिशन क्यों स्वीकार करने को तैयार है, जबकि भाजपा केंद्र में सबसे बड़ी पार्टी है? महाजन- जो भाजपा-शिवसेना गठबंधन के शिल्पी भी थे- ने जवाब दिया : ‘राजनीति में टाइमिंग सही रखने की जरूरत होती है। आज अटलजी देश के सबसे बड़े नेता हैं, लेकिन महाराष्ट्र में हमें अभी भी बालासाहेब की जरूरत है। जिस दिन हमें शिवसेना की जरूरत नहीं होगी और उस दिन हम अकेले ही चलेंगे।’ भाजपा ने अब महाजन का सपना पूरा कर दिया है। कांग्रेस के गढ़ रहे इस राज्य में सत्ता के क्रम में बदलाव कुछ समय से आ रहा है। 2014 में भाजपा और शिवसेना ने वर्ष 1988 में गठबंधन बनाने के बाद पहली बार अलग-अलग विधानसभा चुनाव लड़ा था। नरेंद्र मोदी की लहर पर सवार होकर भाजपा ने 122 सीटें जीतीं और शिवसेना ने 63- यह स्पष्ट संकेत था कि अब राज्य में हिंदुत्व की राजनीति करने वाली मुख्य पार्टी कौन-सी है। वर्ष 2019 के चुनावों के बाद शिवसेना ने कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन के साथ जाने का फैसला किया। वर्ष 2022 में शिवसेना को तोड़कर भाजपा ने उसे कमजोर कर दिया। और अब, अपने अभूतपूर्व तीन-चौथाई बहुमत और लगभग 90 फीसदी स्ट्राइक रेट के साथ, भाजपा ने महाराष्ट्र में एकाधिकार की स्थिति बना ली है। भाजपा को हमेशा से पता था कि महाराष्ट्र में उसके रास्ते में सबसे बड़ी बाधा कांग्रेस नहीं बल्कि वहां के क्षेत्रीय दल हैं। एनसीपी पश्चिमी महाराष्ट्र के मजबूत सहकारी नेटवर्क पर हावी थी तो शिवसेना मराठी अस्मिता की ध्वजवाहक थी। जब भाजपा और शिवसेना गठबंधन सहयोगी थे, तब भी वे एक समान वोट-आधार के लिए प्रतिस्पर्धा कर रहे थे, यह पंजाब में भाजपा और अकालियों के गठबंधन के विपरीत था। 25 वर्षों तक महाराष्ट्र में भाजपा और शिवसेना का यह भगवा गठबंधन बना रहा, क्योंकि भाजपा को जड़ें जमाने के लिए शिवसेना के स्थानीय संपर्क की जरूरत थी। शरद पवार की एनसीपी की ताकत को धीरे-धीरे प्रवर्तन एजेंसी की जांच के दायरे में लाकर कमजोर किया गया। आश्चर्य नहीं कि जब 2023 में एनसीपी में टूट हुई तो पाला बदलने वाले कई नेता ईडी के मामलों का सामना कर रहे थे। दूसरी ओर, शिवसेना में टूट व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा, एजेंसी के दबाव और वैचारिक टूटन के मिले-जुले कारणों से हुई थी। कांग्रेस के साथ शिवसेना का गठबंधन आंतरिक विरोधाभासों से भरा था, जिसने शिवसैनिकों को भ्रमित किया। भाजपा ने एकनाथ शिंदे को उकसाया, जो इस वैचारिक विसंगति का इस्तेमाल खुद को बालासाहेब के सच्चे उत्तराधिकारी के रूप में स्थापित करने के लिए कर रहे थे। भाजपा के लिए शिवसेना का विभाजन एक प्रमुख अवसर था। मोदी-शाह युग में भाजपा ने अटल-आडवाणी काल के समावेशी गठबंधन-धर्म की तुलना में खुद को क्षेत्रीय पार्टियों के साथ किसी भी गठबंधन में प्रमुख खिलाड़ी के रूप में स्थापित करने के लिए लगातार कदम बढ़ाया है। असम में असम गण परिषद (एजीपी) अब भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार में जूनियर पार्टनर है। गोवा में कभी प्रमुख महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी (एमजीपी) अब भाजपा का एक छोटा-सा हिस्सा है। कर्नाटक में जेडीएस उसके गठबंधन की अधीनस्थ सदस्य है। यहां तक कि बिहार में भी- जहां नीतीश कुमार मुख्यमंत्री हैं- भाजपा केवल सही समय का इंतजार कर रही है। एनडीए के भीतर जो सहयोगी दल बचे हैं- चाहे वह चिराग पासवान की लोक जनशक्ति हो या चंद्रबाबू नायडू की तेलुगु देशम- वे वैचारिक रूप से नहीं जुड़े हैं। एकनाथ शिंदे और अजित पवार भी इससे वाकिफ हैं कि महाराष्ट्र में अब बिग बॉस कौन है। क्या अब हम विपक्ष-मुक्त महाराष्ट्र देखेंगे, जैसा कि गुजरात में है? गुजरात में भाजपा की जीत आसान थी, क्योंकि वहां उसके प्रसार का विरोध करने के लिए कोई क्षेत्रीय पार्टी नहीं थी। जबकि महाराष्ट्र में शाहू-फुले-आम्बेडकर की सामाजिक रूप से प्रगतिशील विरासत ने भाजपा के हिंदुत्व को चुनौती दी है। लेकिन चुनाव के नतीजों ने इस विरासत की सीमाओं को उजागर कर दिया है। आज शरद पवार और उद्धव ठाकरे दोनों का ही राजनीतिक भविष्य अनिश्चित है। कांग्रेस- जिसका भाजपा से 75 सीटों पर सीधा मुकाबला था और उनमें से 62 में उसने हार का सामना किया- ने महाराष्ट्र में लोकसभा चुनावों की सफलता से जो गति पकड़ी थी, उसे अब खो दिया है। भाजपा अब अगले पांच वर्षों का उपयोग राज्य की राजनीति पर वर्चस्व स्थापित करने के लिए कर सकती है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)
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