डॉ. नंदितेश निलय का कॉलम:इंसानियत का भाव ही संवैधानिक मूल्यों का संदेश है

संविधान दिवस यानी स्वतंत्रता, समानता, बंधुता और न्याय के मूल्यों के प्रति देश के हर नागरिक के अंदर कर्तव्य बोध जगाता दिवस, जो यह याद दिलाता है कि संविधान देश के नागरिक के लिए है और उन मूल्यों की वकालत करता है, जो किसी व्यक्ति को प्रजातंत्र में सुरक्षा और सम्मान के साथ जीने की संभावना देते हैं। संविधान को अंगीकार करने के 75वें वर्ष में उस न्याय की मूर्ति ने भी हाथों से तलवार हटाकर संविधान को धारण कर लिया और आंखों से पट्टी भी हटा ली। हाल ही में सेवानिवृत्त हुए सीजेआई चंद्रचूड का मानना था कि आखिर न्याय की देवी के हाथ में तलवार और आंखों पर पट्टी क्यों? न्याय के मूल्य तलवार की औपनिवेशिक विरासत में नहीं बल्कि संविधान में निहित नागरिक अधिकार और कर्तव्य बोध की सुरक्षा में हैं, और यही संविधान दिवस का संदेश और महत्व भी है। 26 नवंबर 1949 को अंगीकार संविधान 26 जनवरी 1950 को पूरी तरह लागू हो गया था, पर साथ ही संविधान शिल्पी डॉ. भीमराव आंबेडकर चिंतित भी थे। वे कहते हैं, ‘हम विरोधाभासों भरे जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। राजनीतिक जीवन में तो हमारे पा स समानता होगी, लेकिन सामाजिक और आर्थिक जीवन में असमानता होगी।’ उनके व्यक्तिगत जीवन के कड़वे अनुभव उन्हें आगाह कर रहे थे कि संविधान के बावजूद सफर आसान नहीं होगा। लेकिन जिस तरह की भाषा का प्रयोग हम आजकल चुनावी सभा में देख रहे हैं यह कैसी स्वतंत्रता है? क्यों जाति और धर्म को लेकर अभी भी भेदभाव का सामान्यीकरण हो रहा है? जब हम ट्रेन में सफर कर रहे होते हैं, तो क्या हमें मालूम होता है कि कौन से धर्म और जाति का व्यक्ति रेल चला रहा है, क्यों हम बेफिक्री से सो पाते हैं? क्योंकि हम मानते हैं कि वह रेल का ड्राइवर उस सामाजिक समानता और बंधुता को समझता है और सभी को एक यात्री मानता है। हम यह भी मानते हैं कि कोई डॉक्टर जब किसी मरीज से मिलता है तो वह भी समानता-बंधुता के मूल्यों को समझता होगा और मानता होगा कि उसके सभी मरीज एक समान हैं। यानी हमारी दिनचर्या की सारी कड़ियां स्वतंत्रता, समता, समानता, बंधुता और न्याय के भाव में ही चलती हैं। और ह्यूमन डिग्निटी और सभी के जीवन व अधिकार की रक्षा करना ही तो संवैधानिक न्याय का मूल्य है। मशहूर अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन लिखते हैं कि न्याय का मूल्य सार्वभौमिक होना चाहिए, न कि कुछ लोगों की समस्याओं और संकटों पर लागू हो, लेकिन दूसरों पर नहीं। हम सभी जब अपनी पहचान उन संवैधानिक मूल्यों में ढूंढते हैं, तो कश्मीर के लाल चौक पर उन पर्यटकों और वहां के नागरिकों में कोई हिंदू-मुस्लिम नजर नहीं आता बल्कि सभी की नजर भारत के झंडे पर रहती है। और यही इंसानियत का भाव हमारे देश के संवैधानिक मूल्य हैं। 25 नवंबर 1949 को जब डॉ. आंबेडकर संविधान सभा में अपना अंतिम भाषण दे रहे थे तो मानो यह कहना चाह रहे थे कि संविधान पुस्तक नहीं बल्कि देश होता है, बशर्ते देश के नागरिक मूल्यों के साथ रहें। वे सभी को आगाह करते हुए कहते हैं, ‘...संविधान चाहे कितना भी अच्छा क्यों न हो, यह निश्चित रूप से बुरा साबित हो सकता है अगर इसको लागू करने वाले लोग अच्छाई पर भरोसा नहीं करते। और संविधान चाहे कितना भी बुरा क्यों न हो, यह अच्छा साबित हो सकता है अगर वे जो इसको लागू करते हैं, अच्छे लोग होते हैं।’ (ये लेखक के अपने विचार हैं)

Dec 4, 2024 - 13:28
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डॉ. नंदितेश निलय का कॉलम:इंसानियत का भाव ही संवैधानिक मूल्यों का संदेश है
संविधान दिवस यानी स्वतंत्रता, समानता, बंधुता और न्याय के मूल्यों के प्रति देश के हर नागरिक के अंदर कर्तव्य बोध जगाता दिवस, जो यह याद दिलाता है कि संविधान देश के नागरिक के लिए है और उन मूल्यों की वकालत करता है, जो किसी व्यक्ति को प्रजातंत्र में सुरक्षा और सम्मान के साथ जीने की संभावना देते हैं। संविधान को अंगीकार करने के 75वें वर्ष में उस न्याय की मूर्ति ने भी हाथों से तलवार हटाकर संविधान को धारण कर लिया और आंखों से पट्टी भी हटा ली। हाल ही में सेवानिवृत्त हुए सीजेआई चंद्रचूड का मानना था कि आखिर न्याय की देवी के हाथ में तलवार और आंखों पर पट्टी क्यों? न्याय के मूल्य तलवार की औपनिवेशिक विरासत में नहीं बल्कि संविधान में निहित नागरिक अधिकार और कर्तव्य बोध की सुरक्षा में हैं, और यही संविधान दिवस का संदेश और महत्व भी है। 26 नवंबर 1949 को अंगीकार संविधान 26 जनवरी 1950 को पूरी तरह लागू हो गया था, पर साथ ही संविधान शिल्पी डॉ. भीमराव आंबेडकर चिंतित भी थे। वे कहते हैं, ‘हम विरोधाभासों भरे जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। राजनीतिक जीवन में तो हमारे पा स समानता होगी, लेकिन सामाजिक और आर्थिक जीवन में असमानता होगी।’ उनके व्यक्तिगत जीवन के कड़वे अनुभव उन्हें आगाह कर रहे थे कि संविधान के बावजूद सफर आसान नहीं होगा। लेकिन जिस तरह की भाषा का प्रयोग हम आजकल चुनावी सभा में देख रहे हैं यह कैसी स्वतंत्रता है? क्यों जाति और धर्म को लेकर अभी भी भेदभाव का सामान्यीकरण हो रहा है? जब हम ट्रेन में सफर कर रहे होते हैं, तो क्या हमें मालूम होता है कि कौन से धर्म और जाति का व्यक्ति रेल चला रहा है, क्यों हम बेफिक्री से सो पाते हैं? क्योंकि हम मानते हैं कि वह रेल का ड्राइवर उस सामाजिक समानता और बंधुता को समझता है और सभी को एक यात्री मानता है। हम यह भी मानते हैं कि कोई डॉक्टर जब किसी मरीज से मिलता है तो वह भी समानता-बंधुता के मूल्यों को समझता होगा और मानता होगा कि उसके सभी मरीज एक समान हैं। यानी हमारी दिनचर्या की सारी कड़ियां स्वतंत्रता, समता, समानता, बंधुता और न्याय के भाव में ही चलती हैं। और ह्यूमन डिग्निटी और सभी के जीवन व अधिकार की रक्षा करना ही तो संवैधानिक न्याय का मूल्य है। मशहूर अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन लिखते हैं कि न्याय का मूल्य सार्वभौमिक होना चाहिए, न कि कुछ लोगों की समस्याओं और संकटों पर लागू हो, लेकिन दूसरों पर नहीं। हम सभी जब अपनी पहचान उन संवैधानिक मूल्यों में ढूंढते हैं, तो कश्मीर के लाल चौक पर उन पर्यटकों और वहां के नागरिकों में कोई हिंदू-मुस्लिम नजर नहीं आता बल्कि सभी की नजर भारत के झंडे पर रहती है। और यही इंसानियत का भाव हमारे देश के संवैधानिक मूल्य हैं। 25 नवंबर 1949 को जब डॉ. आंबेडकर संविधान सभा में अपना अंतिम भाषण दे रहे थे तो मानो यह कहना चाह रहे थे कि संविधान पुस्तक नहीं बल्कि देश होता है, बशर्ते देश के नागरिक मूल्यों के साथ रहें। वे सभी को आगाह करते हुए कहते हैं, ‘...संविधान चाहे कितना भी अच्छा क्यों न हो, यह निश्चित रूप से बुरा साबित हो सकता है अगर इसको लागू करने वाले लोग अच्छाई पर भरोसा नहीं करते। और संविधान चाहे कितना भी बुरा क्यों न हो, यह अच्छा साबित हो सकता है अगर वे जो इसको लागू करते हैं, अच्छे लोग होते हैं।’ (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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