चेतन भगत का कॉलम:भाजपा के वोटों को तोड़े बिना जीत नहीं सकती है कांग्रेस
महाराष्ट्र की 288 सीटों में से 233 महायुति के खाते में गईं। एमवीए को केवल 49 सीटें मिलीं। अकेली भाजपा ने 132 सीटें जीत लीं। और कांग्रेस? मात्र 16 सीटें। यह उसके लिए यकीनन कष्टप्रद रहा होगा। एमवीए को न केवल हार का सामना करना पड़ा, बल्कि राज्य में उसके अस्तित्व पर भी संकट आ खड़ा हुआ है। कार्यकर्ताओं का मनोबल टूट गया होगा, पार्टी नेतृत्व सदमे में होगा। जबकि चंद महीने पहले ही यह चुनाव एमवीए की ओर झुका हुआ था। लोकसभा चुनाव के नतीजों को ध्यान में रखें तो एमवीए की जीत की संभावनाएं ज्यादा थीं। चूंकि राज्य के चुनावों में मोदी फैक्टर नहीं होता, ऐसे में एमवीए से और भी बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद थी। तो फिर आखिर हुआ क्या? इसके लिए जिम्मेदार पांच फैक्टरों को समझें : 1. वोटरों ने सुविधा के गठबंधन को खारिज किया है। शिवसेना (यूबीटी), कांग्रेस और एनसीपी (एसएसपी) का आपस में कोई वैचारिक मेल नहीं है। एमवीए गठबंधन 2019 में भाजपा से सत्ता छीनने, उद्धव ठाकरे को सीएम बनाने और एक-दूसरे से सत्ता साझा करने के लिए बनाया गया था। लेकिन वोटर इस तरह का वैचारिक घालमेल और अवसरवाद पसंद नहीं करते हैं। 2. लोग एक बार सहानुभूति दे सकते हैं, लेकिन हमेशा नहीं। शिवसेना में हुई फूट से उद्धव ठाकरे को कुछ सहानुभूति मिली थी। लेकिन इस तरह की भावनाएं लंबे समय तक नहीं टिकतीं। क्या कांग्रेस 1984 के प्रदर्शन को फिर दोहरा सकी थी? आखिरकार, लोग तर्कसंगत रूप से निर्णय लेते ही हैं कि कौन-सी सरकार अधिक स्थिर और वैचारिक रूप से उनके अनुकूल होगी। 3. कभी-कभी चीजें बस क्लिक कर जाती हैं। ‘एक हैं तो सेफ हैं’ का नारा काम कर गया। ‘एक’ से भाजपा का क्या मतलब था, इस पर अभी भी बहस जारी है, लेकिन इस हिट नारे ने भाजपा और महायुति के वोट को मजबूत करने में मदद की। इसमें लाड़की बहिन योजना को जोड़ दें तो आप पाएंगे कि स्लोगन से लेकर स्कीम तक, सबकुछ भाजपा के लिए कारगर साबित हुआ। 4. जून में वोटरों ने भाजपा के प्रति निराशा व्यक्त कर दी थी। भाजपा ने अपने कुछ वोट खो दिए थे। लेकिन गुस्सा भी एक क्षणिक भावना है और समय सब कुछ ठीक कर देता है। महाराष्ट्र के नतीजे बताते हैं कि भाजपा का कोर-वोटर अपनी पार्टी के प्रति दीर्घकालीन रूप से निष्ठावान है। 5. जब एकनाथ शिंदे सत्ता में आए थे, तब वे सीएम स्तर के पद के लिए अपेक्षाकृत अज्ञात और अप्रमाणित चेहरा थे। वे एक ऐसे समूह का भी नेतृत्व कर रहे थे, जो अपनी मूल पार्टी से टूटकर आया था। इससे उनकी विश्वसनीयता पर सवाल उठे। हालांकि तब से वे राज्य को इस स्तर तक चलाने में कामयाब रहे हैं कि लोग उनसे खुश हैं। उन्होंने अपना खुद का ब्रांड बनाया है और लाड़की बहिन जैसी नीतियों का श्रेय भी उन्हें ही जाता है। इस पांच बिंदुओं से हमें क्या महा-सबक मिलता है? सबसे पहले तो विपक्ष के लिए कुछ कठोर सच्चाइयों का सामना करने का समय आ गया है। उन्हें समझना होगा कि भाजपा जानती है अधिकतर भारतीय क्या चाहते हैं। वे जमीन पर कान लगाए हुए हैं, मतदाताओं की बात सुनते हैं, बदलाव करते हैं, जरूरत पड़ने पर पीछे भी हटते हैं, लेकिन अंततः अपने आधार को मजबूत बनाए रखने के लिए जो करना पड़ता है, करते हैं। दूसरे, जहां भाजपा का प्रभुत्व एक सच्चाई है, वहीं यह भी सच है कि कई मतदाताओं को भाजपा के काम करने का तरीका पसंद नहीं है। लेकिन ये मतदाता बिखरे हुए हैं। जब तक भाजपा विरोधी वोटों का एकीकरण नहीं होता, तब तक हर चुनाव में कांग्रेस को निराशा का सामना करना पड़ेगा। याद रहे कि महाराष्ट्र चुनाव में 15% वोट ‘अन्य’ श्रेणी में गए थे- न महायुति को और न ही एमवीए को। कांग्रेस के पास इस समय जीतने के दो ही तरीके हैं। एक, भाजपा के वोटों को बांटना, जिसके लिए वे जाति जनगणना आदि के जरिए प्रयास कर रहे हैं। हालांकि इसका प्रभाव सीमित है। मतदाता पूछता है- इससे मुझे ठोस रूप से क्या मिलेगा? दूसरा तरीका है, भाजपा विरोधी वोटों को एकजुट करना। महाराष्ट्र में अवसरवादी गठबंधन के कारण यह नहीं हो पाया। लेकिन कांग्रेस को अपने भीतर भी बड़े बदलाव करने की जरूरत है। उन्हें हर चीज पर फिर से विचार करना होगा- विचारधारा, दृष्टि, नारा, नीति, वक्तृत्व और बड़ा आइडिया। एक जैसी परिपाटी पर चलते हुए पहले से अलग नतीजों की उम्मीद करना कांग्रेस के लिए कारगर नहीं होने वाला है। कांग्रेस के पास इस समय जीतने के दो ही तरीके हैं। एक, भाजपा के वोटों को बांटना, और दो, भाजपा विरोधी वोटों को एकजुट करना। महाराष्ट्र में बेमेल विचारधारा के अवसरवादी गठबंधन के कारण यह नहीं हो पाया। (ये लेखक के अपने विचार हैं)
What's Your Reaction?