एन. रघुरामन का कॉलम:अच्छे इतिहास से रूबरू होकर बच्चे बनते हैं हरफनमौला

शनिवार रात 9:15 बजे, इंदौर के विद्यासागर स्कूल की छात्रा ने मुझे विजिटर्स डायरी में टिप्पणी लिखने कहा। ग्रामीण परिवेश से आने के बावजूद वह अच्छी अंग्रेजी बोल रही थी। यकीन मानिए, मेरे लिए उस खूबसूरत डायरी में 10 शब्द लिखना भी मुश्किल था। उसमें मेरी राइटिंग जैसी आई थी, उससे अच्छा तो मैं तब लिखता था, जब स्कूल तक नहीं जाता था। जानते हैं क्यों? क्योंकि मेरे हाथ दो कारणों से कांप रहे थे। पहला, उस रात तापमान बहुत कम था और स्कूल के 33वें वार्षिक कार्यक्रम में शामिल होने के लिए, मैं शाम 5:30 बजे एक खुले मैदान में बैठा था। दूसरा, अंदर से मेरे खून में उबाल-सा आ गया था, इसलिए नहीं कि मैं बुरे मौसम में बैठा था बल्कि इसलिए कि स्कूल के बच्चों ने 16वीं सदी के इतिहास के कुछ ऐसे पन्ने खोल दिए थे जिससे मुझमें जोश भर गया था। बच्चों ने खूबसूरती से, छावा (बहादुर शावक) यानी छत्रपति संभाजी महाराज के शानदार जीवन और विरासत के 32 सालों के कुछ खास पहलू हमारी नज़रों के सामने ला दिए थे। इसमें सिर्फ इतिहास ही नहीं, ऐसी अच्छी पैरेंटिंग का महत्व भी दिखाया गया जो बच्चों को ‘छावा’ बनाने के लिए ज़रूरी है। नाटक में बहादुर माता-पिता, समर्पित दादा-दादी और सुशिक्षित शिक्षकों के योगदान को दर्शाया गया। इसमें शिवाजी महाराज के साहस और अपने 12 दिन के बच्चे को, पुणे के पुरंदर किले से सह्याद्री की पहाड़ियों की ताजा हवा में ले जाने की उनकी क्षमता ही नहीं बताई गई, बल्कि पिता के तौर पर उनकी भावनाएं भी दिखीं। जैसे वे पत्नी के गर्भ में पल रहे ‘शावक’ को बहादुरी की कहानियां सुनाते थे। नाटक में कुछ हिस्से दादी जीजाबाई के योगदान को भी समर्पित थे, जिन्होंने संभाजी के मन में मराठाभूमि के प्रति प्रेम की अलख जगाई, जिससे उन्हें ‘छावा’ नाम मिला। जीजाबाई ने संभाजी को योद्धा बनने के लिए प्रेरित किया और समय-समय पर उनके ज्ञान की परीक्षा लेती रहीं ताकि वे एक सर्वगुण संपन्न व्यक्ति बनें। नाटक के इस हिस्से ने परोक्ष रूप से आज के एकल परिवारों की ओर इशारा किया और बताया कि कैसे दादा-दादी के मौजूद होने से बच्चों के विकास पर अच्छा असर पड़ता है। एक दृश्य में दिखाया गया कि कैसे जीजाबाई को, संभाजी के लिए एक अच्छे हृदय वाली ‘दूधमाता’ खोजने में संघर्ष करना पड़ा क्योंकि संभाजी की मां को एक बीमारी के कारण स्तनपान कराना मना था। इस हिस्से में एक मां की अंदरूनी अच्छाई दिखी। हैरानी की बात नहीं कि बचपन से ही संभाजी बेहद आकर्षक और बहादुर थे, साथ ही संस्कृत के विद्वान और आठ अन्य भाषाओं के ज्ञाता थे। आगे यह बताया गया कि छावा के प्रशिक्षण के लिए शिक्षकों का चयन कैसे हुआ। उनके लिए सिर्फ विद्वान नहीं, विद्यावान शिक्षक खोजे गए। इससे पता चलता है कि एक बहादुर और होशियार ‘शावक’ बनाने के लिए शिक्षकों को खुद को तैयार करना कितना जरूरी है। ‘छावा’ नाम के इस नाटक की सबसे अच्छी बात यह थी कि इसमें मंच पर और मंच के पीछे से, हर छात्र ने पूरा योगदान दिया, ताकि बात अच्छे से पहुंचे और सबकुछ शानदार दिखे। उन्होंने सुनिश्चित किया कि उनके अंदर के साहस से दूसरों में डर जागे और अंततः बताया कि उनका आत्मविश्वास सह्याद्री से भी ऊंचा है। यकीन मानिए, तीसरी कक्षा के इन बच्चों ने मंच पर पूरे आत्मविश्वास से अंग्रेज़ी बोली और पहली कक्षा के बच्चों ने आगंतुकों से स्कूल का परिचय कराया। फंडा यह है कि हमारे समृद्ध भारतीय इतिहास का एक सफ़र, बच्चों को न सिर्फ सभी मायनों में होशियार बनाता है, बल्कि पैरेंटिंग को भी खुशनुमा बना देता है।

एन. रघुरामन का कॉलम:अच्छे इतिहास से रूबरू होकर बच्चे बनते हैं हरफनमौला
शनिवार रात 9:15 बजे, इंदौर के विद्यासागर स्कूल की छात्रा ने मुझे विजिटर्स डायरी में टिप्पणी लिखने कहा। ग्रामीण परिवेश से आने के बावजूद वह अच्छी अंग्रेजी बोल रही थी। यकीन मानिए, मेरे लिए उस खूबसूरत डायरी में 10 शब्द लिखना भी मुश्किल था। उसमें मेरी राइटिंग जैसी आई थी, उससे अच्छा तो मैं तब लिखता था, जब स्कूल तक नहीं जाता था। जानते हैं क्यों? क्योंकि मेरे हाथ दो कारणों से कांप रहे थे। पहला, उस रात तापमान बहुत कम था और स्कूल के 33वें वार्षिक कार्यक्रम में शामिल होने के लिए, मैं शाम 5:30 बजे एक खुले मैदान में बैठा था। दूसरा, अंदर से मेरे खून में उबाल-सा आ गया था, इसलिए नहीं कि मैं बुरे मौसम में बैठा था बल्कि इसलिए कि स्कूल के बच्चों ने 16वीं सदी के इतिहास के कुछ ऐसे पन्ने खोल दिए थे जिससे मुझमें जोश भर गया था। बच्चों ने खूबसूरती से, छावा (बहादुर शावक) यानी छत्रपति संभाजी महाराज के शानदार जीवन और विरासत के 32 सालों के कुछ खास पहलू हमारी नज़रों के सामने ला दिए थे। इसमें सिर्फ इतिहास ही नहीं, ऐसी अच्छी पैरेंटिंग का महत्व भी दिखाया गया जो बच्चों को ‘छावा’ बनाने के लिए ज़रूरी है। नाटक में बहादुर माता-पिता, समर्पित दादा-दादी और सुशिक्षित शिक्षकों के योगदान को दर्शाया गया। इसमें शिवाजी महाराज के साहस और अपने 12 दिन के बच्चे को, पुणे के पुरंदर किले से सह्याद्री की पहाड़ियों की ताजा हवा में ले जाने की उनकी क्षमता ही नहीं बताई गई, बल्कि पिता के तौर पर उनकी भावनाएं भी दिखीं। जैसे वे पत्नी के गर्भ में पल रहे ‘शावक’ को बहादुरी की कहानियां सुनाते थे। नाटक में कुछ हिस्से दादी जीजाबाई के योगदान को भी समर्पित थे, जिन्होंने संभाजी के मन में मराठाभूमि के प्रति प्रेम की अलख जगाई, जिससे उन्हें ‘छावा’ नाम मिला। जीजाबाई ने संभाजी को योद्धा बनने के लिए प्रेरित किया और समय-समय पर उनके ज्ञान की परीक्षा लेती रहीं ताकि वे एक सर्वगुण संपन्न व्यक्ति बनें। नाटक के इस हिस्से ने परोक्ष रूप से आज के एकल परिवारों की ओर इशारा किया और बताया कि कैसे दादा-दादी के मौजूद होने से बच्चों के विकास पर अच्छा असर पड़ता है। एक दृश्य में दिखाया गया कि कैसे जीजाबाई को, संभाजी के लिए एक अच्छे हृदय वाली ‘दूधमाता’ खोजने में संघर्ष करना पड़ा क्योंकि संभाजी की मां को एक बीमारी के कारण स्तनपान कराना मना था। इस हिस्से में एक मां की अंदरूनी अच्छाई दिखी। हैरानी की बात नहीं कि बचपन से ही संभाजी बेहद आकर्षक और बहादुर थे, साथ ही संस्कृत के विद्वान और आठ अन्य भाषाओं के ज्ञाता थे। आगे यह बताया गया कि छावा के प्रशिक्षण के लिए शिक्षकों का चयन कैसे हुआ। उनके लिए सिर्फ विद्वान नहीं, विद्यावान शिक्षक खोजे गए। इससे पता चलता है कि एक बहादुर और होशियार ‘शावक’ बनाने के लिए शिक्षकों को खुद को तैयार करना कितना जरूरी है। ‘छावा’ नाम के इस नाटक की सबसे अच्छी बात यह थी कि इसमें मंच पर और मंच के पीछे से, हर छात्र ने पूरा योगदान दिया, ताकि बात अच्छे से पहुंचे और सबकुछ शानदार दिखे। उन्होंने सुनिश्चित किया कि उनके अंदर के साहस से दूसरों में डर जागे और अंततः बताया कि उनका आत्मविश्वास सह्याद्री से भी ऊंचा है। यकीन मानिए, तीसरी कक्षा के इन बच्चों ने मंच पर पूरे आत्मविश्वास से अंग्रेज़ी बोली और पहली कक्षा के बच्चों ने आगंतुकों से स्कूल का परिचय कराया। फंडा यह है कि हमारे समृद्ध भारतीय इतिहास का एक सफ़र, बच्चों को न सिर्फ सभी मायनों में होशियार बनाता है, बल्कि पैरेंटिंग को भी खुशनुमा बना देता है।