संडे जज्बात- मम्मी-पापा की मौत तो बुआ चर्च छोड़ आई:अब लंदन से पढ़कर लौटी तो रिश्तेदार बेटी कहने लगे
संडे जज्बात- मम्मी-पापा की मौत तो बुआ चर्च छोड़ आई:अब लंदन से पढ़कर लौटी तो रिश्तेदार बेटी कहने लगे
मेरा नाम पूजा उदयन है। मैं 25 साल की हूं, दिल्ली में रहती हूं। किराए का एक खाली सा मकान है। जिसकी सादे रंग की दीवारों पर सजाने के लिए ढेरों फोटो फ्रेम तो खरीद लिए, लेकिन परिवार की कोई तस्वीर नहीं है। तस्वीर होगी भी कैसे, मुझे तो मां की शक्ल भी याद नहीं। पापा का कुछ धुंधला सा चेहरा याद है। मैंने मां-पापा को उस उम्र में खोया, जब किसी बच्चे को मौत का मतलब भी पता नहीं होता। तीन बहन-भाई थे, लेकिन अब दो बहनें ही हैं। बड़ी बहन बताती है कि 1995 में हम लोग दिल्ली में एक किराए के मकान में रहते थे। मैं एक साल की थी, जब मां का एक्सीडेंट हुआ। कुछ दिन बाद इलाज के दौरान उनकी मौत हो गई। तब बड़ी बहन 8 साल की और भाई 5 साल का था। मां-पापा की लव मैरिज थी। मां हिंदू थीं और पापा ईसाई। शादी के बाद मां के घरवालों ने सारे रिश्ते तोड़ लिए। पापा के घरवाले भी नाराज थे। मां-पापा ने एक-दूसरे के इर्द-गिर्द ही पूरी दुनिया बसा ली थी। अचानक मां के चले जाने का सदमा पापा झेल नहीं पा रहे थे। पापा कमजोर पड़ने लगे थे। लेकिन तीन बच्चों की जिम्मेदारी भी निभा रहे थे। हमारे साथ एक चाचा भी रहते थे। चाचा की दिमागी हालत ठीक नहीं थी, इसलिए वे पूरी तरह से पापा पर निर्भर थे। बुझे-बुझे रहने वाले पापा धीरे-धीरे डिप्रेशन में चले गए। मां को गए पांच साल बीते चुके थे। अब मैं पांच साल की थी, भाई 10 साल का और बहन 12 साल की। अचानक हमारी जिंदगी में ऐसा दिन आया कि हमारा सबकुछ हमेशा के लिए बदल गया। मैं सोकर उठी भी नहीं थी, मेरे कानों में लोगों के रोने की आवाज आ रही थी। उठकर बाहर आई तो देखा बड़ी बहन, भाई और चाचा रो रहे थे। धीरे-धीरे घर में भीड़ बढ़ने लगी थी। पहले आस-पड़ोस के अंकल-आंटी आए। फिर न जाने कौन-कौन से रिश्तेदार, जो इसके पहले कभी मेरे घर नहीं आए थी। फुसफुसाती आवाज में लोग कह रहे थे कि अब तीनों बच्चों का क्या होगा। बड़ी बहन को थोड़ी समझ थी। उससे पूछा सब लोग क्यों आए हैं?... सिसकती आवाज में बोली पापा हमें छोड़ कर चले गए। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि पापा कहां चले गए…पांच साल के बच्चे में शायद इतनी समझ होती भी नहीं। जब बड़ी हुई तो कहीं से पता चला कि पापा को टीबी था। धीरे-धीरे दिन बीते और मेहमान अपने घर को लौट गए। अब घर में हम तीन बहन-भाई और चाचा थे। अब सबको खिलाने और हमें पालने की जिम्मेदारी बड़ी बहन पर थी। क्योंकि चाचा तो बीमार ही थे। घर में बचा हुआ राशन भी कुछ दिन ही चला। पैसे भी नहीं थे। फिर बड़ी बहन पड़ोसियों से मांगकर हमारे खाने का इंतजाम करती। कई रात तो भूखे पेट ही सोना पड़ता। फिर एक ऐसी सुबह आई जब चाचा सोकर उठे ही नहीं। उन्हें हार्ट अटैक आया था। किसी तरह हमने पूरे परिवार को इस बारे में बताया। एकबार फिर घर में भीड़ जमा हुई। सब आए, रोए, हमें समझाया और चले गए। कोई न तो हमारे पास रुका और न ही हमें साथ ले गया। अब दो कमरों का मकान और हम तीन बच्चे। अब मकान मालिक रोज घर आने लगे थे। काफी देर बैठे रहते, शायद कुछ कहना चाहते थे लेकिन कह नहीं पाते थे। एक दिन सुबह-सुबह मकान मालिक आए, बोले ‘बड़ी बहन को बुलाओ’ बड़ी बहन आई तो कहने लगे, ‘बेटा अब तुम लोगों के घर कोई कमाने वाला तो बचा नहीं… किराया कैसे भर पाओगे? इसलिए अब ये मकान खाली कर दो। बड़ी बहन हमे लेकर पड़ोस वाले अंकल के घर रहने लगी। जैसे-तैसे बुआ को इस बारे में पता चाल तो वो बोलीं ‘मैं कुछ इंतजाम करती हूं।’ बड़ी बहन ने कुछ कपड़े और कुछ जरूरी सामान पैक कर लिया। बुआ के साथ हम लोग चल दिए। हमें लगा शायद बुआ अपने घर ले जा रही हैं। लेकिन वो हमें पास के एक चर्च ले गईं और कहा ‘अब तुम लोग यहीं रहना।’ अब हम लोग चर्च के भरोसे थे। कभी खाना मिल जाता तो कभी भूख के मारे आंंतें सिकुड़ने लगतीं। खुले आसमान के नीचे सोते। छह महीने बाद उदयन एनजीओ वाले हमें चर्च से ले गए। इनके दिल्ली के आस-पास कई सेंटर थे, जिनमें अनाथ लड़कियों-लड़कों के लिए हॉस्टलनुमा व्यवस्था थी। मेरे भाई को बॉयज सेंटर में रखा गया। बहन को कहीं और मैं मुझे कहीं और। चूंकि हम तीनों एक ही एनजीओ, उदयन के साथ थे, हम लोग महीने में एक बार मिलते ही थे। यहां आकर मुझे परिवार जैसे लोग मिले जिनका आभार जीवन भर नहीं चुकाया जा सकता। मेरी बहन का एडमिशन सर्वोदय विद्यालय में कराया गया। भाई का एडमिशन भी एक सरकारी स्कूल में हुआ। मैं उम्र के मुताबिक पढ़ने में तेज थी इसलिए मेरा एडमिशन दिल्ली के एक नामी स्कूल में कराया गया। तकरीबन पांच साल गुजर चुके थे। अब मेरी उम्र 14 साल थी। भाई 18 के थे। एक दिन पता चला- भाई नहीं रहे, उन्हें टीबी था। वो दिन आज भी याद करती हूं तो रो पड़ती हूं। हम भाई से आखिरी बार भी मिल नहीं पाए। इस बात का दुख मुझे जीवन भर रहेगा। खैर, इस बीच एनजीओ ने बड़ी बहन की शादी करवा दी। 12वीं तक की पढ़ाई के दौरान ही इतना कुछ हो चुका था कि लगता था इससे बुरा अब क्या ही होगा। स्कूल में भी भेदभाव कम नहीं था। इस बड़े स्कूल की टीचर को बच्चों का ख्याल रखना अच्छे से आता था। मगर सिर्फ उन्हीं बच्चों का जो ‘फैमिली’ से आते थे। हमारे जैसे बच्चों के साथ उनका व्यवहार कुछ अलग ही होता था। जैसे, पैरेंट टीचर मीटिंग में टीचर्स हमारी तुलना उदयन के बच्चों से ही करते थे। वो हमें ‘फैमिली वाले बच्चों की’ तुलना के लायक भी नहीं समझते थे। पेरेंट्स के साथ आए बच्चे के 72% मार्क्स आने पर वो कहते कि मेहनत करने पर इसके 90% आ सकते हैं। लेकिन उदयन के बच्चों के 46% मार्क्स को भी बहुत बढ़िया बताते थे। वहां से निकलते ही नोएडा की एक यूनिवर्सिटी में बैचलर्स में ए़डमिशन मिल गया। यूनिवर्सिटी में चीजें थोड़ी ठीक रहीं। वहां कोई परिवार के बारे में पूछने या जांचने वाला नहीं था। चुपचाप पढ़ने और अपने काम से काम रखने की सीख ने मेरा बहुत साथ दिया। साल 2016 में बैचलर्स पास करते ही मेरी नौकरी नामी कंपनी में लग गई। यहां मैं वेलफेयर से जुड़े कामों में लगी रही। जीवन के पांच साल मैंने यहां दिया और साथ-साथ पढ़ाई जारी रखी। मैंने यहां महिलाओं के इंपा
मेरा नाम पूजा उदयन है। मैं 25 साल की हूं, दिल्ली में रहती हूं। किराए का एक खाली सा मकान है। जिसकी सादे रंग की दीवारों पर सजाने के लिए ढेरों फोटो फ्रेम तो खरीद लिए, लेकिन परिवार की कोई तस्वीर नहीं है। तस्वीर होगी भी कैसे, मुझे तो मां की शक्ल भी याद नहीं। पापा का कुछ धुंधला सा चेहरा याद है। मैंने मां-पापा को उस उम्र में खोया, जब किसी बच्चे को मौत का मतलब भी पता नहीं होता। तीन बहन-भाई थे, लेकिन अब दो बहनें ही हैं। बड़ी बहन बताती है कि 1995 में हम लोग दिल्ली में एक किराए के मकान में रहते थे। मैं एक साल की थी, जब मां का एक्सीडेंट हुआ। कुछ दिन बाद इलाज के दौरान उनकी मौत हो गई। तब बड़ी बहन 8 साल की और भाई 5 साल का था। मां-पापा की लव मैरिज थी। मां हिंदू थीं और पापा ईसाई। शादी के बाद मां के घरवालों ने सारे रिश्ते तोड़ लिए। पापा के घरवाले भी नाराज थे। मां-पापा ने एक-दूसरे के इर्द-गिर्द ही पूरी दुनिया बसा ली थी। अचानक मां के चले जाने का सदमा पापा झेल नहीं पा रहे थे। पापा कमजोर पड़ने लगे थे। लेकिन तीन बच्चों की जिम्मेदारी भी निभा रहे थे। हमारे साथ एक चाचा भी रहते थे। चाचा की दिमागी हालत ठीक नहीं थी, इसलिए वे पूरी तरह से पापा पर निर्भर थे। बुझे-बुझे रहने वाले पापा धीरे-धीरे डिप्रेशन में चले गए। मां को गए पांच साल बीते चुके थे। अब मैं पांच साल की थी, भाई 10 साल का और बहन 12 साल की। अचानक हमारी जिंदगी में ऐसा दिन आया कि हमारा सबकुछ हमेशा के लिए बदल गया। मैं सोकर उठी भी नहीं थी, मेरे कानों में लोगों के रोने की आवाज आ रही थी। उठकर बाहर आई तो देखा बड़ी बहन, भाई और चाचा रो रहे थे। धीरे-धीरे घर में भीड़ बढ़ने लगी थी। पहले आस-पड़ोस के अंकल-आंटी आए। फिर न जाने कौन-कौन से रिश्तेदार, जो इसके पहले कभी मेरे घर नहीं आए थी। फुसफुसाती आवाज में लोग कह रहे थे कि अब तीनों बच्चों का क्या होगा। बड़ी बहन को थोड़ी समझ थी। उससे पूछा सब लोग क्यों आए हैं?... सिसकती आवाज में बोली पापा हमें छोड़ कर चले गए। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि पापा कहां चले गए…पांच साल के बच्चे में शायद इतनी समझ होती भी नहीं। जब बड़ी हुई तो कहीं से पता चला कि पापा को टीबी था। धीरे-धीरे दिन बीते और मेहमान अपने घर को लौट गए। अब घर में हम तीन बहन-भाई और चाचा थे। अब सबको खिलाने और हमें पालने की जिम्मेदारी बड़ी बहन पर थी। क्योंकि चाचा तो बीमार ही थे। घर में बचा हुआ राशन भी कुछ दिन ही चला। पैसे भी नहीं थे। फिर बड़ी बहन पड़ोसियों से मांगकर हमारे खाने का इंतजाम करती। कई रात तो भूखे पेट ही सोना पड़ता। फिर एक ऐसी सुबह आई जब चाचा सोकर उठे ही नहीं। उन्हें हार्ट अटैक आया था। किसी तरह हमने पूरे परिवार को इस बारे में बताया। एकबार फिर घर में भीड़ जमा हुई। सब आए, रोए, हमें समझाया और चले गए। कोई न तो हमारे पास रुका और न ही हमें साथ ले गया। अब दो कमरों का मकान और हम तीन बच्चे। अब मकान मालिक रोज घर आने लगे थे। काफी देर बैठे रहते, शायद कुछ कहना चाहते थे लेकिन कह नहीं पाते थे। एक दिन सुबह-सुबह मकान मालिक आए, बोले ‘बड़ी बहन को बुलाओ’ बड़ी बहन आई तो कहने लगे, ‘बेटा अब तुम लोगों के घर कोई कमाने वाला तो बचा नहीं… किराया कैसे भर पाओगे? इसलिए अब ये मकान खाली कर दो। बड़ी बहन हमे लेकर पड़ोस वाले अंकल के घर रहने लगी। जैसे-तैसे बुआ को इस बारे में पता चाल तो वो बोलीं ‘मैं कुछ इंतजाम करती हूं।’ बड़ी बहन ने कुछ कपड़े और कुछ जरूरी सामान पैक कर लिया। बुआ के साथ हम लोग चल दिए। हमें लगा शायद बुआ अपने घर ले जा रही हैं। लेकिन वो हमें पास के एक चर्च ले गईं और कहा ‘अब तुम लोग यहीं रहना।’ अब हम लोग चर्च के भरोसे थे। कभी खाना मिल जाता तो कभी भूख के मारे आंंतें सिकुड़ने लगतीं। खुले आसमान के नीचे सोते। छह महीने बाद उदयन एनजीओ वाले हमें चर्च से ले गए। इनके दिल्ली के आस-पास कई सेंटर थे, जिनमें अनाथ लड़कियों-लड़कों के लिए हॉस्टलनुमा व्यवस्था थी। मेरे भाई को बॉयज सेंटर में रखा गया। बहन को कहीं और मैं मुझे कहीं और। चूंकि हम तीनों एक ही एनजीओ, उदयन के साथ थे, हम लोग महीने में एक बार मिलते ही थे। यहां आकर मुझे परिवार जैसे लोग मिले जिनका आभार जीवन भर नहीं चुकाया जा सकता। मेरी बहन का एडमिशन सर्वोदय विद्यालय में कराया गया। भाई का एडमिशन भी एक सरकारी स्कूल में हुआ। मैं उम्र के मुताबिक पढ़ने में तेज थी इसलिए मेरा एडमिशन दिल्ली के एक नामी स्कूल में कराया गया। तकरीबन पांच साल गुजर चुके थे। अब मेरी उम्र 14 साल थी। भाई 18 के थे। एक दिन पता चला- भाई नहीं रहे, उन्हें टीबी था। वो दिन आज भी याद करती हूं तो रो पड़ती हूं। हम भाई से आखिरी बार भी मिल नहीं पाए। इस बात का दुख मुझे जीवन भर रहेगा। खैर, इस बीच एनजीओ ने बड़ी बहन की शादी करवा दी। 12वीं तक की पढ़ाई के दौरान ही इतना कुछ हो चुका था कि लगता था इससे बुरा अब क्या ही होगा। स्कूल में भी भेदभाव कम नहीं था। इस बड़े स्कूल की टीचर को बच्चों का ख्याल रखना अच्छे से आता था। मगर सिर्फ उन्हीं बच्चों का जो ‘फैमिली’ से आते थे। हमारे जैसे बच्चों के साथ उनका व्यवहार कुछ अलग ही होता था। जैसे, पैरेंट टीचर मीटिंग में टीचर्स हमारी तुलना उदयन के बच्चों से ही करते थे। वो हमें ‘फैमिली वाले बच्चों की’ तुलना के लायक भी नहीं समझते थे। पेरेंट्स के साथ आए बच्चे के 72% मार्क्स आने पर वो कहते कि मेहनत करने पर इसके 90% आ सकते हैं। लेकिन उदयन के बच्चों के 46% मार्क्स को भी बहुत बढ़िया बताते थे। वहां से निकलते ही नोएडा की एक यूनिवर्सिटी में बैचलर्स में ए़डमिशन मिल गया। यूनिवर्सिटी में चीजें थोड़ी ठीक रहीं। वहां कोई परिवार के बारे में पूछने या जांचने वाला नहीं था। चुपचाप पढ़ने और अपने काम से काम रखने की सीख ने मेरा बहुत साथ दिया। साल 2016 में बैचलर्स पास करते ही मेरी नौकरी नामी कंपनी में लग गई। यहां मैं वेलफेयर से जुड़े कामों में लगी रही। जीवन के पांच साल मैंने यहां दिया और साथ-साथ पढ़ाई जारी रखी। मैंने यहां महिलाओं के इंपावर्मेंट से लेकर गरीब बच्चों की शिक्षा तक पर काम किया। स्वास्थ्य से लेकर दैनिक आमदनी के परियोजनाओं पर काम किया। जब पहली सैलरी मिली तो मुझमें अलग तरह का कॉन्फिडेंस आ गया। लेकिन मैं आगे पढ़ना चाहती थी। एक दिन मुझे इंग्लैंड की नामी स्कॉलरशिप मिली। इसे यूके की सरकार देती है। ये स्कॉलरशिप सिर्फ 50 लोगों की ही मिलती है। इस फेलोशिप की वजह से मैं लंदन की SOAS यूनिवर्सिटी में दो साल तक पढ़ सकी। इस सब के बीच एक कमाल की चीज हुई। जीवन की इस आपाधापी में लंदन जाने के बाद मेरे गुम हो चुके रिश्ते बाहर आए। मेरी मां और पिता के तरफ के लोग मुझे याद करने लगे। मुझसे ढंके-छिपे लिहाज में उम्मीद करने लगे। मेरे लिए ये आश्चर्य से भर जाने वाली बात थी। मुझे लगता था कि जो हमारे दुख में साथ नहीं थे, सुख में क्यों हैं? मगर दुनिया ऐसे ही चलती है। ये बात मुझे समय रहते समझ में आ गई। पढ़ाई पूरी हुई तो मेरे पास वहीं बस जाने का मौका था। तमाम नौकरियां थीं जो विदेश में अकेले रहने के लिए पर्याप्त थीं। मुझे लगा कि परिवार के न होने के दुख से जूझ रहे मेरे जैसे लाखों बच्चों के लिए कुछ किया जाना चाहिए। मैं लंदन से लौट आई और मार्टिन जेम्स फाउंडेशन में प्रोग्राम एडवाइजर बन गई। एक नामी संस्था के लिए सीएसआर का काम भी करती हूं। मैं खुद आफ्टर केयर पर काम करना चाहती हूं। लंदन से लौटकर आने के बाद परिवार के लोग यानी बुआ, मौसी, मामा अब मुझे काफी याद करते हैं।(हल्की मुस्कान के साथ)। घर वाले अब मिलने को कहते हैं, बातें करना चाहते हैं। मैं असमंजस के हाल में उनसे मिलने जाती हूं, बातें भी खूब करती हूं। मदद भी करती हूं लेकिन फिर सोच में भी पड़ जाती हूं। अंत में यही समझ में आता है कि परिवार जरूरी चीज है और चाहते - न चाहते हुए मुझे उनका साथ अच्छा लगता है। उनके साथ मैं खुश रहती हूं। मैं जानती हूं कि जरूरत के समय इन लोगों ने हमारा साथ नहीं दिया, लेकिन फिर भी उनके एकबार बुलाने पर दौड़ी चली आती हूं। मुझे लगता है कि जैसा भी है मेरा परिवार है। मां-पापा के साथ तो रहने का मौका मिला नहीं तो इन लोगों में ही मैं उन्हें खोजती हूं। मैं परिवार के न होने का दुख समझती हूं। ***** संडे जज्बात सीरीज की ये स्टोरीज भी पढ़िए... 1-दोस्त ने अपने 7 घरवालों को मार डाला:उसके बेटे को गोद लिया; लोग प्रॉपर्टी का लालच बताने लगे, कहते हैं- खून खींचता है मैंने एक दोस्त का फर्ज निभाया है। प्रॉपर्टी तो अपने पिता की नहीं ली तो शबनम की जमीन-जायदाद क्या लूंगा। उसने अपने पूरे परिवार की हत्या कर दी। कोर्ट ने सजा दी है, वो काट रही है। उसके बेटे को गोद लिया तो लोग कहते हैं- खून खींचता है। पूरी खबर पढ़िए... 2.इलाज के दौरान सुसाइड कर लेते हैं मरीज:लोग कहते थे इतना पढ़ने के बाद तुम पागलों का डॉक्टर क्यों बनना चाहते हो? मैं डॉ. राजीव मेहता दिल्ली के सर गंगाराम हॉस्पिटल में मनोचिकित्सक हूं। आपने बिल्कुल सही समझा, पागलों का डॉक्टर हूं। सामने भले नहीं, लेकिन पीठ पीछे लोग यही कहते हैं। जिन लोगों को हमारी सोसाइटी पागल कहती है, उनका इलाज करना ही मेरा पेशा है। पूरी खबर पढ़िए...