संडे जज्बात-एक तरफ लाशों का ढेर, दूसरी तरफ बारात:दंगे के बाद अस्पताल में खड़ी थी, जिंदगी का मकसद ही बदल गया

मैं दीक्षा द्विवेदी वकील हूं, मुझे अच्छे से याद है उस रोज गुरुवार था, तारीख थी 23 फरवरी 2020। शाम के वक्त मैं अपने ऑफिस में थी। खबर आने लगी कि दिल्ली के कई इलाकों में दंगे शुरू हो गए हैं। आगे कुछ सोच पाती इससे पहले ही घर से फोन आया कि जल्दी घर पहुंच जाऊं। कोर्ट में अगले दिन एक मामले में बहस होनी थी, उसी की तैयारी कर रही थी। फोन आने के बाद लगा कि सारे डॉक्यूमेंट घर ही ले जाती हूं वहीं देख लूंगी। जल्दी-जल्दी फाइलें समेटने लगी। तभी मेरे मोबाइल पर एक अनजान नंबर से कॉल आया। कुछ पूछती, उससे पहले ही दूसरी तरफ से आवाज आई…मैडम आप जीटीबी अस्पताल आ जाइए किसी को आपकी जरूरत है। अपने दो दोस्तों के साथ जीटीबी अस्पताल पहुंची। यहां का नजारा देख आंखें पथरा सी गईं। मेरे सामने ही खून से लथपथ लाशें यहां लाई गईं। इन लाशों में भी किसी के कंधे पर बैग टंगा था तो किसी की जेब में उसके मोबाइल में रिंग आ रही थी। ऐसा नजारा इससे पहले तो मैंने कभी देखा क्या इसकी कल्पना भी नहीं की थी। सच कहती हूं, मैंने तो इससे पहले किसी मरे इंसान को देखा ही नहीं था, लेकिन यहां तो लाशें ही लाशें थीं, मैं इनके बीच में खड़ी थी। जिंदगी में पहली दफा लाश देख रही थी। थोड़ा संभली तो बताया गया कि यह शख्स सड़क पर जा रहा था, तभी उसे गोली लग गई। मुझे लगा कि उसके परिवार वाले उसे ढूंढ रहे होंगे। उसके लिए परेशान हो रहे होंगे और यहां उसकी लाश पड़ी हुई है। अस्पताल में ही खून से लथपथ एक बच्चा बैठा था, उसकी पीठ में गोली लगी थी। मुझे सदमा सा लगा, ऐसा लगने लगा कि सब खत्म हो गया। ऐसे कोई किसी की हत्या कैसे कर सकता है। मेरे दोनों दोस्तों ने मुझे संभाला। करीब एक-डेढ़ घंटे बाद वो मुझे अस्पताल से बाहर लेकर निकले। मेरा सिर घूम सा रहा था। दोस्तों के साथ अस्पताल के गेट पर पहुंची ही थी कि जोर-जोर से बैंड-बाजे के साथ एक बारात आ गई। बाराती इतने जोश में नाच रहे थे। अस्पताल के बाहर बारात और अस्पताल के अंदर लाशें ही लाशें। मैंने अपने दोनों कानों पर हाथ रख लिया। जैसे-तैसे उसी हालत में घर आ गई। तीन दिन तक न तो ठीक से खाना खाया और न ही सही से नींद ही आई। एंग्जाइटी से जूझने लगी। समझ नहीं पा रही थी कि जो दो मंजर देखे हैं उन्हें क्या कहूं। एक तो वो जिसमें जिंदगी खत्म हो गई और दूसरा वो जिसमें नई जिंदगी शुरू होने जा रही है। बहुत दिनों तक सोचती रही कि क्या यही हमारी जिंदगी है? बहुत दिन क्या कहूं एक तरह से कई महीने निकल गए, लाशों और बारात का नजारा मेरे दिमाग से निकल ही नहीं रहा था। इसी दौरान न जाने कैसे या यूं कहूं कि अपने आप मेरे काम करने का तरीका ही बदल सा गया। फैसला कर लिया कि अब अपनी वकालत को नए सिरे से शुरू करना है और दंगा पीड़ितों के ही कैस लड़ना है। इस दंगे में सबसे ज्यादा वे लोग थे जो बेहद गरीब थे। कई बस्तियों में गई, लोगों की परेशानियों को समझा। एक दिन में कोर्ट में थी। एक बुजुर्ग महिला अदालत आई थी। मैंने देखा कि वो कई वकीलों से मिलती और वे उसे किसी काम के लिए मना कर देते। एक वकील ने उसे मेरे पास भेज दिया। बुजुर्ग महिला रोती हुई कहने लगी मेरे बेटे की जमानत करवा दे, वो दंगे के मामले में जेल में है। ज्यादा पैसे तो नहीं हैं मेरे पास, लेकिन मुझसे जो हो पाएगा सब करूंगी बेटे को जेल से निकालने के लिए। उन्हें बैठाया, कहा.. उसकी जमानत करवा दूंगी। अगले दिन उनके बेटे को जमानत मिल गई। अगले दिन सुबह 5 बजे मेरा फोन बजा। जैसे ही फोन उठाया दूसरी तरफ से आवाज आई, ‘बेटा मैं शाम 5 बजे से जेल के बाहर बैठी हूं। रात भर राह देखती रही। अब तक मेरा बेटा बाहर नहीं आया।’ मैंने तुरंत फोन लगाने शुरू किए तो पता चला उस पर दो केस और हैं। इन मामलों में भी निजी मुचलके पर बेल करवा दी। फिर उस पर 9 और केस लगा दिए गए थे। यानी अब उस पर कुल 12 केस थे। ऐसे में निजी मुचलके पर बेल करवाने में अप्रैल से अक्टूबर आ गया, लेकिन उसकी मां हर रोज मेरे दफ्तर आती और यही पूछती कि बेटा घर कब आएगा। बेल के लिए पैसा भी मुझे क्राउड फंडिंग के जरिए जुटाना पड़ा। आखिरकार बेटे की जमानत हुई और मां उसे घर ले गई। मुझे बहुत राहत महसूस हो रही थी। लग रहा था कि मैंने एक तड़प रही मां को उसके बेटे से मिलवाया है। मुझे फीस तो नहीं मिली, लेकिन अच्छा लग रहा था। लगभग 15 दिन बाद उसकी मां वापस मेरे पास आई और कहने लगी मेरे बेटे को वापस जेल भिजवा दो। ये सुनते ही मैं हैरान रह गई कि जिस मां ने बेटे की जमानत के लिए भीख तक मांगी वो अब खुद उसे जेल भेजना चाहती है। इस बात ने मुझे कई रात सोने नहीं दिया। समझ नहीं आ रहा था कि आखिर हुआ क्या। वो मां रोज मेरे दफ्तर आने लगी और एक ही बात कहती कि बेटे की बेल श्योरिटी कैंसिंल कर उसे जेल भेज दो। मैंने पूछा कि हुआ क्या है। मां ने अपनी दास्तां सुनाई कि जेल में लड़के की मानसिक हालत खराब हो गई है। हर दिन वह अपनी बूढ़ी मां से झगड़ा करता है। नशे का आदी हो गया है। पागलों जैसी हरकतें करता है। मां कहने लगी कि अब मेरे सहन से बाहर है। हाथ जोड़ती हूं कि उसे वापस जेल भेज दो। मैं कई दिन तक उस मां को समझाती रही। मैंने यहां तक कहा कि मैं आपका यह केस नहीं लूंगी। बहुत ज्यादा गुस्सा और बेबसी महसूस हो रही थी, लेकिन वो नहीं मानी। आखिरकार वो अपने बेटे को जेल भेजकर ही मानी। मैं इतनी बेबस थी कि समझ नहीं आ रहा था कि किससे बात करूं। उस रात मैं अपने एक वकील दोस्त से बात करती रही क्योंकि मुझे लग रहा था कि अगर मैंने किसी से बात नहीं की तो मेरी मानसिक हालत खराब हो जाएगी। मेरी नजरों में मां-बेटे का रिश्ता बहुत अलग था। मेरे लिए ये समझ पाना मुश्किल था कि कोई मां भी ऐसा कर सकती है। बेटे के जेल जाने के बाद वो फोन पर यही कहती थी कि मेरा बेटा पता नहीं कैसा होगा, उसने खाना खाया होगा या नहीं, बहुत पतला हो गया है। मुझे सच में समझ ही नहीं आया कि आखिर यह क्या हो रहा है। मां बेटे के रिश्ते इस मोड़ पर आ सकते हैं कि मां बेटे को जेल भिजवा सकती है क्या। आज उस केस को लेकर मेरा गुस्सा

संडे जज्बात-एक तरफ लाशों का ढेर, दूसरी तरफ बारात:दंगे के बाद अस्पताल में खड़ी थी, जिंदगी का मकसद ही बदल गया
मैं दीक्षा द्विवेदी वकील हूं, मुझे अच्छे से याद है उस रोज गुरुवार था, तारीख थी 23 फरवरी 2020। शाम के वक्त मैं अपने ऑफिस में थी। खबर आने लगी कि दिल्ली के कई इलाकों में दंगे शुरू हो गए हैं। आगे कुछ सोच पाती इससे पहले ही घर से फोन आया कि जल्दी घर पहुंच जाऊं। कोर्ट में अगले दिन एक मामले में बहस होनी थी, उसी की तैयारी कर रही थी। फोन आने के बाद लगा कि सारे डॉक्यूमेंट घर ही ले जाती हूं वहीं देख लूंगी। जल्दी-जल्दी फाइलें समेटने लगी। तभी मेरे मोबाइल पर एक अनजान नंबर से कॉल आया। कुछ पूछती, उससे पहले ही दूसरी तरफ से आवाज आई…मैडम आप जीटीबी अस्पताल आ जाइए किसी को आपकी जरूरत है। अपने दो दोस्तों के साथ जीटीबी अस्पताल पहुंची। यहां का नजारा देख आंखें पथरा सी गईं। मेरे सामने ही खून से लथपथ लाशें यहां लाई गईं। इन लाशों में भी किसी के कंधे पर बैग टंगा था तो किसी की जेब में उसके मोबाइल में रिंग आ रही थी। ऐसा नजारा इससे पहले तो मैंने कभी देखा क्या इसकी कल्पना भी नहीं की थी। सच कहती हूं, मैंने तो इससे पहले किसी मरे इंसान को देखा ही नहीं था, लेकिन यहां तो लाशें ही लाशें थीं, मैं इनके बीच में खड़ी थी। जिंदगी में पहली दफा लाश देख रही थी। थोड़ा संभली तो बताया गया कि यह शख्स सड़क पर जा रहा था, तभी उसे गोली लग गई। मुझे लगा कि उसके परिवार वाले उसे ढूंढ रहे होंगे। उसके लिए परेशान हो रहे होंगे और यहां उसकी लाश पड़ी हुई है। अस्पताल में ही खून से लथपथ एक बच्चा बैठा था, उसकी पीठ में गोली लगी थी। मुझे सदमा सा लगा, ऐसा लगने लगा कि सब खत्म हो गया। ऐसे कोई किसी की हत्या कैसे कर सकता है। मेरे दोनों दोस्तों ने मुझे संभाला। करीब एक-डेढ़ घंटे बाद वो मुझे अस्पताल से बाहर लेकर निकले। मेरा सिर घूम सा रहा था। दोस्तों के साथ अस्पताल के गेट पर पहुंची ही थी कि जोर-जोर से बैंड-बाजे के साथ एक बारात आ गई। बाराती इतने जोश में नाच रहे थे। अस्पताल के बाहर बारात और अस्पताल के अंदर लाशें ही लाशें। मैंने अपने दोनों कानों पर हाथ रख लिया। जैसे-तैसे उसी हालत में घर आ गई। तीन दिन तक न तो ठीक से खाना खाया और न ही सही से नींद ही आई। एंग्जाइटी से जूझने लगी। समझ नहीं पा रही थी कि जो दो मंजर देखे हैं उन्हें क्या कहूं। एक तो वो जिसमें जिंदगी खत्म हो गई और दूसरा वो जिसमें नई जिंदगी शुरू होने जा रही है। बहुत दिनों तक सोचती रही कि क्या यही हमारी जिंदगी है? बहुत दिन क्या कहूं एक तरह से कई महीने निकल गए, लाशों और बारात का नजारा मेरे दिमाग से निकल ही नहीं रहा था। इसी दौरान न जाने कैसे या यूं कहूं कि अपने आप मेरे काम करने का तरीका ही बदल सा गया। फैसला कर लिया कि अब अपनी वकालत को नए सिरे से शुरू करना है और दंगा पीड़ितों के ही कैस लड़ना है। इस दंगे में सबसे ज्यादा वे लोग थे जो बेहद गरीब थे। कई बस्तियों में गई, लोगों की परेशानियों को समझा। एक दिन में कोर्ट में थी। एक बुजुर्ग महिला अदालत आई थी। मैंने देखा कि वो कई वकीलों से मिलती और वे उसे किसी काम के लिए मना कर देते। एक वकील ने उसे मेरे पास भेज दिया। बुजुर्ग महिला रोती हुई कहने लगी मेरे बेटे की जमानत करवा दे, वो दंगे के मामले में जेल में है। ज्यादा पैसे तो नहीं हैं मेरे पास, लेकिन मुझसे जो हो पाएगा सब करूंगी बेटे को जेल से निकालने के लिए। उन्हें बैठाया, कहा.. उसकी जमानत करवा दूंगी। अगले दिन उनके बेटे को जमानत मिल गई। अगले दिन सुबह 5 बजे मेरा फोन बजा। जैसे ही फोन उठाया दूसरी तरफ से आवाज आई, ‘बेटा मैं शाम 5 बजे से जेल के बाहर बैठी हूं। रात भर राह देखती रही। अब तक मेरा बेटा बाहर नहीं आया।’ मैंने तुरंत फोन लगाने शुरू किए तो पता चला उस पर दो केस और हैं। इन मामलों में भी निजी मुचलके पर बेल करवा दी। फिर उस पर 9 और केस लगा दिए गए थे। यानी अब उस पर कुल 12 केस थे। ऐसे में निजी मुचलके पर बेल करवाने में अप्रैल से अक्टूबर आ गया, लेकिन उसकी मां हर रोज मेरे दफ्तर आती और यही पूछती कि बेटा घर कब आएगा। बेल के लिए पैसा भी मुझे क्राउड फंडिंग के जरिए जुटाना पड़ा। आखिरकार बेटे की जमानत हुई और मां उसे घर ले गई। मुझे बहुत राहत महसूस हो रही थी। लग रहा था कि मैंने एक तड़प रही मां को उसके बेटे से मिलवाया है। मुझे फीस तो नहीं मिली, लेकिन अच्छा लग रहा था। लगभग 15 दिन बाद उसकी मां वापस मेरे पास आई और कहने लगी मेरे बेटे को वापस जेल भिजवा दो। ये सुनते ही मैं हैरान रह गई कि जिस मां ने बेटे की जमानत के लिए भीख तक मांगी वो अब खुद उसे जेल भेजना चाहती है। इस बात ने मुझे कई रात सोने नहीं दिया। समझ नहीं आ रहा था कि आखिर हुआ क्या। वो मां रोज मेरे दफ्तर आने लगी और एक ही बात कहती कि बेटे की बेल श्योरिटी कैंसिंल कर उसे जेल भेज दो। मैंने पूछा कि हुआ क्या है। मां ने अपनी दास्तां सुनाई कि जेल में लड़के की मानसिक हालत खराब हो गई है। हर दिन वह अपनी बूढ़ी मां से झगड़ा करता है। नशे का आदी हो गया है। पागलों जैसी हरकतें करता है। मां कहने लगी कि अब मेरे सहन से बाहर है। हाथ जोड़ती हूं कि उसे वापस जेल भेज दो। मैं कई दिन तक उस मां को समझाती रही। मैंने यहां तक कहा कि मैं आपका यह केस नहीं लूंगी। बहुत ज्यादा गुस्सा और बेबसी महसूस हो रही थी, लेकिन वो नहीं मानी। आखिरकार वो अपने बेटे को जेल भेजकर ही मानी। मैं इतनी बेबस थी कि समझ नहीं आ रहा था कि किससे बात करूं। उस रात मैं अपने एक वकील दोस्त से बात करती रही क्योंकि मुझे लग रहा था कि अगर मैंने किसी से बात नहीं की तो मेरी मानसिक हालत खराब हो जाएगी। मेरी नजरों में मां-बेटे का रिश्ता बहुत अलग था। मेरे लिए ये समझ पाना मुश्किल था कि कोई मां भी ऐसा कर सकती है। बेटे के जेल जाने के बाद वो फोन पर यही कहती थी कि मेरा बेटा पता नहीं कैसा होगा, उसने खाना खाया होगा या नहीं, बहुत पतला हो गया है। मुझे सच में समझ ही नहीं आया कि आखिर यह क्या हो रहा है। मां बेटे के रिश्ते इस मोड़ पर आ सकते हैं कि मां बेटे को जेल भिजवा सकती है क्या। आज उस केस को लेकर मेरा गुस्सा ठंडा हो चुका है तो मुझे लगता है आखिर कितनी मजबूर रही होगी यह मां कि जिसने अपने बेटे को वापस जेल भेज दिया। दरअसल उस लड़के को काउंसिलिंग की जरूरत थी। दिमागी इलाज की जरूरत थी। मैंने उन्हें कई साइकेट्रिस्ट के बारे में बताया भी था, लेकिन वो इतनी गरीब थी कि इलाज के लिए पैसे नहीं थे। आजकल वह लड़का जेल में है। मैंने भी इस केस को छोड़ दिया। अदालतों में केस लड़ते-लड़ते कुछ घटनाओं ने मेरी जिंदगी पर गहरा असर डाला। मैंने इंसानी रिश्तों में इतनी कड़वाहट देखी है। मैंने इंसानियत के टुकड़े देखे हैं। मैंने इंसान होने के नाम पर हैवान देखे हैं। तो वहीं कुछ ऐसे लोगों को भी देखा है जो ऐसे हालात में भी जिंदा रहे जिसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते। मैं बचपन में यही सोचती थी कि कोर्ट रूम फिल्मों जैसा ही होता है। कोर्ट रूम में वकील बोलते हैं। सब लोग उन्हें सुनते हैं। बहुत धाक है। मुझे बहुत अच्छा लगता था। वहां से ही मुझे लगा कि मुझे वकील बनना चाहिए। मुझे पब्लिक स्पीकिंग हमेशा से बहुत पसंद थी। मुझे लगता था कि मैं बोलूं और लोग मुझे सुनें। हालांकि मेरे माता पिता मुझे डॉक्टर बनाना चाहते थे, लेकिन मैंने अपनी राह चुन ली थी। मैंने इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से बीएएलएलबी किया है और बेंगलुरु से एलएलएम किया है। बचपन से ही मुझे गलत बातों पर बहुत गुस्सा आता था। मैं नाराज होकर या चिल्लाकर उस गलत को गलत कहती थी, तरीका नहीं पता था कि गलत को कैसे जाहिर और कैसे साबित करना है। जब वकील बनी तो पता चला कोर्ट रूम में अपनी बात कहना या जज तक उसे पहुंचाना बहुत मुश्किल होता है। मैं जब वकील बनी तो सीएए के खिलाफ आंदोलन चल रहे थे। हम कुछ वकील दोस्तों ने मिलकर एक ग्रुप बनाया। हम प्रोटेस्ट में जाते। डिटेन किए हुए लोगों की जानकारी लेते और उन्हें कानूनी मदद करते। सिलसिला ऐसे ही चलता रहा। वकालत करते हुए मेरा ज्यादातर काम दंगों में रहा है। चाहे वह दिल्ली दंगे हों या मणिपुर के दंगे हों। एक घटना तो मैं कभी भुला ही नहीं सकती। दंगों का एक आरोपी जेल में बंद था। उसकी बहुत बूढ़ी मां मेरे पास आई और कहने लगी कि, ‘मेरे बेटे को जेल से बाहर निकलवा दो। कई वकीलों के पास गई। किसी ने 100 तो किसी ने 500 रुपए लिए, लेकिन मेरी मदद नहीं की।’ मैंने कहा, ‘ठीक है, लेकिन उसकी डिटेल दो।’ किसी तरह से उस अनपढ़ मां ने यहां वहां से मदद लेकर अपने बेटे की डिटेल मुझे दी। एक दिन मैं कुछ कागजों के लिए उसकी मां को बार-बार फोन लगा रही थी, लेकिन किसी ने फोन नहीं उठाया। उसके दूसरे बेटे को फोन किया तो कहने लगा, ‘मां की मौत हो गई है। वो जब कोर्ट से घर आ रही थी तभी उसका एक्सीडेंट हो गया।’ ये सुनते ही मैं दुखी हो गई और सोचा कि अब इसके बेटे की जमानत जरूर करवाऊंगी। एक दिन वह बेटा भी जेल से रिहा हो गया। जेल से रिहा होने के बाद वह लड़का बीमार हो गया। जब वह जेल में था तो उसके भाइयों ने किसी तरह धोखे से उसकी प्रॉपर्टी भी हड़प ली थी। पत्नी छोड़कर चली गई थी। वह लड़का ऐसा बीमार हुआ कि ठीक ही नहीं होना चाहता था। वह कहता था कि बस उसे मरना है। एक दिन पता लगा कि वह लड़का भी मर गया। मां बेटे को जेल से बाहर नहीं देख सकी और अब बेटा मर गया। इस घटना को मैं कभी भुला नहीं सकती। मुझे थोड़ी राहत इस बात से है कि जज साहब ने उस केस में वारंट इश्यू नहीं किया था। जज भी कहीं कहीं मानवीयता रखते हैं। जानते हैं कि कहां गलत हो रहा है। किसे फंसाया गया है। कस्टडी में होने वाले अपराधों की भी बहुत शिकायतें आती हैं। जेलों में ज्यादातर गरीब और दिहाड़ीदार ठुंसे पड़े हैं। सालों साल जेल में सड़ते रहते हैं। उनकी कोई बेल करवाने वाला नहीं होता है। एक दंगे की बात है। मुझे किसी ने बताया कि फलां जेल में पुलिस ने कम से कम 20-25 लोगों को लॉकअप में रखा हुआ है। मैंने अदालत में 41-डी (अपने वकील से मिलने की परमिशन) की एप्लिकेशन लगाई ताकि मैं अपने क्लाइंट से मिल सकूं। जब मैं वहां गई तो मैंने मुद्दा उठाया कि इन सभी को जेल से छोड़ा जाए। शाम होते-होते एक ट्रक में उन लोगों को भरकर लाया गया। किसी से बदबू आ रही थी तो किसी के कपड़े फटे थे। वह लोग पागलों की तरह कहने लगे कि हमारे परिवार से बात करवा दो। वो लोग हमें ढूंढ रहे होंगे, उनको नहीं पता है कि हम जेल में हैं। मुझे दिक्कत उस बात से हुई कि उन लोगों से पेशाब की बदबू आ रही थी। उनमें से एक ने बताया कि उन्हें एक दूसरे के ऊपर पेशाब करने के लिए कहा गया था। जो पुलिस लोगों की सुरक्षा के लिए है, वह पीड़ितों के साथ ऐसा व्यवहार करती है। किसी भी गिरफ्तारी के बाद 24 घंटे के अंदर उसे पेश करना होता है, लेकिन पुलिस तीन दिन से उन लोगों को गैरकानूनी तौर पर लॉकअप में रखे हुए है। बच्चे भी हैं उनमें। इस तरह की घटना मुझे ये सोचने पर मजबूर कर देती है कि क्या ये लोग वाकई इंसान हैं। दंगे ऐसी चीज हैं जहां मैंने देखा है कि लोग क्रूर हो जाते हैं। भूल जाते हैं कि वह मानव हैं। वह किसी के प्रभाव में इतना आ जाते हैं। निजी खुन्नस के नाम पर बहुत लोगों को फंसा दिया जाता है। - ये सारी बातें दीक्षा द्विवेदी ने भास्कर रिपोर्टर मनीषा भल्ला से शेयर कीं… ***** संडे जज्बात सीरीज की ये स्टोरीज भी पढ़िए... 1-दोस्त ने अपने 7 घरवालों को मार डाला:उसके बेटे को गोद लिया; लोग प्रॉपर्टी का लालच बताने लगे, कहते हैं- खून खींचता है मैंने एक दोस्त का फर्ज निभाया है। प्रॉपर्टी तो अपने पिता की नहीं ली तो शबनम की जमीन-जायदाद क्या लूंगा। उसने अपने पूरे परिवार की हत्या कर दी। कोर्ट ने सजा दी है, वो काट रही है। उसके बेटे को गोद लिया तो लोग कहते हैं- खून खींचता है। पूरी खबर पढ़िए... 2.इलाज के दौरान सुसाइड कर लेते हैं मरीज:लोग कहते थे इतना पढ़ने के बाद तुम पागलों का डॉक्टर क्यों बनना चाहते हो? मैं डॉ. राजीव मेहता दिल्ली के सर गंगाराम हॉस्पिटल में मनोचिकित्सक हूं। आपने बिल्कुल सही समझा, पागलों का डॉक्टर हूं। सामने भले नहीं, लेकिन पीठ पीछे लोग यही कहते हैं। जिन लोगों को हमारी सोसाइटी पागल कहती है, उनका इलाज करना ही मेरा पेशा है। पूरी खबर पढ़िए...