विराग गुप्ता का कॉलम:संभल, अजमेर जैसे मामलों से छिड़ गई है एक नई बहस

बांग्लादेश में हिन्दू मंदिरों पर हमला और इस्कॉन पर प्रतिबंध की मांग भारतीय उपमहाद्वीप में कट्टरपंथियों के बढ़ते वर्चस्व को दर्शा रहे हैं। साल 2011 में 15वें संविधान संशोधन से बांग्लादेश को धर्मनिरपेक्ष देश माना गया था, जिसे अब खत्म करने की मांग हो रही है। भारत में भी आपातकाल के दौरान प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने संविधान की प्रस्तावना में समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता शब्दों को शामिल किया था। सुप्रीम कोर्ट में नए चीफ जस्टिस संजीव खन्ना ने इन दोनों शब्दों को प्रस्तावना से हटाने वाली याचिका को संक्षिप्त आदेश से खारिज करके अच्छी शुरुआत की है। कई जज ऐसे मामलों में संविधान पीठ के गठन और लम्बे-चौड़े आदेश से सुर्खियां बटोरते हैं, लेकिन इससे मुकदमों का बोझ बढ़ने के साथ न्यायपालिका की गरिमा कमजोर होती है। वक्फ, धर्मान्तरण, मुस्लिमों को आरक्षण, प्रार्थना-स्थल कानून की वैधता, मदरसा, घुसपैठियों पर विवाद से जुड़े कई कानूनों पर बढ़ रही बहस से कई लोग भारत के धर्मनिरपेक्ष चरित्र पर सवाल उठाते हैं। बढ़ते कट्टरपंथ के लिहाज से धर्मनिरपेक्षता से जुड़े कानूनी पहलुओं की परख जरूरी है। 1. आपातकाल के दौरान संजय गांधी के नसबंदी अभियान और पुरानी दिल्ली में तुर्कमान गेट पर तोड़फोड़ से अल्पसंख्यक समुदाय कांग्रेस से नाराज था। सियासी बढ़त हासिल करने के लिए इंदिरा सरकार ने लोकसभा का नियमित कार्यकाल खत्म होने के बाद 42वें संशोधन से प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष और समाजवाद शब्दों को शामिल किया था। उस कवायद से दो बड़े सवाल उठे? क्या आजादी से आपातकाल तक भारत का संविधान धर्मनिरपेक्ष नहीं था? और क्या अब प्रस्तावना से धर्मनिरपेक्ष शब्द हटाए जाने पर संविधान धर्मनिरपेक्ष नहीं रहेगा? उन दोनों शब्दों को प्रस्तावना से हटाने वाली याचिका को निरस्त करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने संविधान में संशोधन के लिए संसद के अधिकारों को सर्वोपरि माना है। बेसिक ढांचा सिद्धांत के अनुसार प्रस्तावना समेत अनेक संवैधानिक प्रावधानों को संसद नहीं बदल सकती। लेकिन 1976 में मूल प्रस्तावना को संसद ने संशोधित किया था। इसलिए प्रस्तावना में बाद में शामिल धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद दोनों शब्दों को संसद में संविधान संशोधन से हटाया जा सकता है। लेकिन उसकी जरूरत नहीं है। इंदिरा सरकार ने नागरिकों के कर्तव्य को भी संविधान संशोधन से शामिल किया था, जिसे हटाने की कोई चर्चा नहीं है। 2. आजादी के बाद पृथक वोटर लिस्ट का सिस्टम खत्म होकर सभी को बराबरी से वोट डालने का अधिकार मिला। संविधान में समानता की वजह से बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक दोनों के नाम पर किसी भी समुदाय का तुष्टीकरण नहीं हो सकता। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट से जाहिर है कि मुस्लिम समुदाय में अशिक्षा की वजह से गरीबी और पिछड़ापन है। इसलिए मदरसों और वक्फ में सुधार से जुड़े कानूनों का स्वागत होना चाहिए। अनुच्छेद-370 की समाप्ति, समान नागरिक संहिता और घुसपैठियों पर रोक लगाने जैसे कानूनी मुद्दों पर धर्म की सियासत सरासर गलत है। 3. मध्यकाल में अनेक मंदिरों को तोड़कर मस्जिदें बनाई गईं, जो ऐतिहासिक सच है। काशी, मथुरा और अयोध्या के मंदिरों से पूरे हिन्दू समाज की आस्था जुड़ी है। शुरुआती दौर में उन स्थानों पर मुस्लिम समुदाय की सहमति मिलने पर 21वीं सदी के भारत को मध्ययुगीन विवादों के पचड़ों से मुक्ति मिल सकती थी। 2022 में जस्टिस चन्द्रचूड़ ने पूजास्थल कानून की व्याख्या करते हुए कहा था कि किसी पूजास्थल का धार्मिक स्वरूप नहीं बदला जा सकता, लेकिन धार्मिक स्वरूप की जांच हो सकती है। उसकी आड़ में सिविल अदालतों में मस्जिदों-मजारों के सर्वे की मांग बढ़ने से संसद के कानून और सुप्रीम कोर्ट की मर्यादा दोनों का हनन हो रहा है। संभल, अजमेर आदि में इतिहास बदलने की कोशिश में देश का भविष्य बिगड़ सकता है। 4. पाकिस्तान में सिर्फ 2.17 फीसदी और बांग्लादेश में लगभग 8 फीसदी हिन्दू बचे हैं। जबकि 15 फीसदी से ज्यादा मुस्लिमों की वजह से भारत दुनिया का दूसरा सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी वाला देश है। लेकिन भारत के संविधान की प्रस्तावना में सभी नागरिकों के लिए समानता, स्वतंत्रता और न्याय की बात कही गई है। 50 साल पहले आपातकाल में किए गए संविधान संशोधन को प्रतीकात्मक तौर पर रिवर्स करने की कोशिश से भारत में गवर्नेंस और संविधान दोनों की गाड़ी बेपटरी हो सकती है। क्योंकि प्रस्तावना में बदलाव के बावजूद भारत में समानता पर आधारित संवैधानिक व्यवस्था धर्मनिरपेक्ष ही रहेगी। जस्टिस चन्द्रचूड़ ने पूजास्थल कानून की व्याख्या करते हुए कहा था कि पूजास्थलों के स्वरूप की जांच हो सकती है। उसकी आड़ में मस्जिदों-मजारों के सर्वे की मांग बढ़ने से संसद के कानून और सुप्रीम कोर्ट की मर्यादा का हनन हो रहा है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

विराग गुप्ता का कॉलम:संभल, अजमेर जैसे मामलों से छिड़ गई है एक नई बहस
बांग्लादेश में हिन्दू मंदिरों पर हमला और इस्कॉन पर प्रतिबंध की मांग भारतीय उपमहाद्वीप में कट्टरपंथियों के बढ़ते वर्चस्व को दर्शा रहे हैं। साल 2011 में 15वें संविधान संशोधन से बांग्लादेश को धर्मनिरपेक्ष देश माना गया था, जिसे अब खत्म करने की मांग हो रही है। भारत में भी आपातकाल के दौरान प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने संविधान की प्रस्तावना में समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता शब्दों को शामिल किया था। सुप्रीम कोर्ट में नए चीफ जस्टिस संजीव खन्ना ने इन दोनों शब्दों को प्रस्तावना से हटाने वाली याचिका को संक्षिप्त आदेश से खारिज करके अच्छी शुरुआत की है। कई जज ऐसे मामलों में संविधान पीठ के गठन और लम्बे-चौड़े आदेश से सुर्खियां बटोरते हैं, लेकिन इससे मुकदमों का बोझ बढ़ने के साथ न्यायपालिका की गरिमा कमजोर होती है। वक्फ, धर्मान्तरण, मुस्लिमों को आरक्षण, प्रार्थना-स्थल कानून की वैधता, मदरसा, घुसपैठियों पर विवाद से जुड़े कई कानूनों पर बढ़ रही बहस से कई लोग भारत के धर्मनिरपेक्ष चरित्र पर सवाल उठाते हैं। बढ़ते कट्टरपंथ के लिहाज से धर्मनिरपेक्षता से जुड़े कानूनी पहलुओं की परख जरूरी है। 1. आपातकाल के दौरान संजय गांधी के नसबंदी अभियान और पुरानी दिल्ली में तुर्कमान गेट पर तोड़फोड़ से अल्पसंख्यक समुदाय कांग्रेस से नाराज था। सियासी बढ़त हासिल करने के लिए इंदिरा सरकार ने लोकसभा का नियमित कार्यकाल खत्म होने के बाद 42वें संशोधन से प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष और समाजवाद शब्दों को शामिल किया था। उस कवायद से दो बड़े सवाल उठे? क्या आजादी से आपातकाल तक भारत का संविधान धर्मनिरपेक्ष नहीं था? और क्या अब प्रस्तावना से धर्मनिरपेक्ष शब्द हटाए जाने पर संविधान धर्मनिरपेक्ष नहीं रहेगा? उन दोनों शब्दों को प्रस्तावना से हटाने वाली याचिका को निरस्त करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने संविधान में संशोधन के लिए संसद के अधिकारों को सर्वोपरि माना है। बेसिक ढांचा सिद्धांत के अनुसार प्रस्तावना समेत अनेक संवैधानिक प्रावधानों को संसद नहीं बदल सकती। लेकिन 1976 में मूल प्रस्तावना को संसद ने संशोधित किया था। इसलिए प्रस्तावना में बाद में शामिल धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद दोनों शब्दों को संसद में संविधान संशोधन से हटाया जा सकता है। लेकिन उसकी जरूरत नहीं है। इंदिरा सरकार ने नागरिकों के कर्तव्य को भी संविधान संशोधन से शामिल किया था, जिसे हटाने की कोई चर्चा नहीं है। 2. आजादी के बाद पृथक वोटर लिस्ट का सिस्टम खत्म होकर सभी को बराबरी से वोट डालने का अधिकार मिला। संविधान में समानता की वजह से बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक दोनों के नाम पर किसी भी समुदाय का तुष्टीकरण नहीं हो सकता। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट से जाहिर है कि मुस्लिम समुदाय में अशिक्षा की वजह से गरीबी और पिछड़ापन है। इसलिए मदरसों और वक्फ में सुधार से जुड़े कानूनों का स्वागत होना चाहिए। अनुच्छेद-370 की समाप्ति, समान नागरिक संहिता और घुसपैठियों पर रोक लगाने जैसे कानूनी मुद्दों पर धर्म की सियासत सरासर गलत है। 3. मध्यकाल में अनेक मंदिरों को तोड़कर मस्जिदें बनाई गईं, जो ऐतिहासिक सच है। काशी, मथुरा और अयोध्या के मंदिरों से पूरे हिन्दू समाज की आस्था जुड़ी है। शुरुआती दौर में उन स्थानों पर मुस्लिम समुदाय की सहमति मिलने पर 21वीं सदी के भारत को मध्ययुगीन विवादों के पचड़ों से मुक्ति मिल सकती थी। 2022 में जस्टिस चन्द्रचूड़ ने पूजास्थल कानून की व्याख्या करते हुए कहा था कि किसी पूजास्थल का धार्मिक स्वरूप नहीं बदला जा सकता, लेकिन धार्मिक स्वरूप की जांच हो सकती है। उसकी आड़ में सिविल अदालतों में मस्जिदों-मजारों के सर्वे की मांग बढ़ने से संसद के कानून और सुप्रीम कोर्ट की मर्यादा दोनों का हनन हो रहा है। संभल, अजमेर आदि में इतिहास बदलने की कोशिश में देश का भविष्य बिगड़ सकता है। 4. पाकिस्तान में सिर्फ 2.17 फीसदी और बांग्लादेश में लगभग 8 फीसदी हिन्दू बचे हैं। जबकि 15 फीसदी से ज्यादा मुस्लिमों की वजह से भारत दुनिया का दूसरा सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी वाला देश है। लेकिन भारत के संविधान की प्रस्तावना में सभी नागरिकों के लिए समानता, स्वतंत्रता और न्याय की बात कही गई है। 50 साल पहले आपातकाल में किए गए संविधान संशोधन को प्रतीकात्मक तौर पर रिवर्स करने की कोशिश से भारत में गवर्नेंस और संविधान दोनों की गाड़ी बेपटरी हो सकती है। क्योंकि प्रस्तावना में बदलाव के बावजूद भारत में समानता पर आधारित संवैधानिक व्यवस्था धर्मनिरपेक्ष ही रहेगी। जस्टिस चन्द्रचूड़ ने पूजास्थल कानून की व्याख्या करते हुए कहा था कि पूजास्थलों के स्वरूप की जांच हो सकती है। उसकी आड़ में मस्जिदों-मजारों के सर्वे की मांग बढ़ने से संसद के कानून और सुप्रीम कोर्ट की मर्यादा का हनन हो रहा है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)