विराग गुप्ता का कॉलम:‘वीआईपी सिंड्रोम’ के बीच आमजन को भी न्याय मिले
विराग गुप्ता का कॉलम:‘वीआईपी सिंड्रोम’ के बीच आमजन को भी न्याय मिले
सुप्रीम कोर्ट के जजों ने रणवीर इलाहाबादिया के कथन को अश्लील, अमर्यादित और आपत्तिजनक मानते हुए उसकी भर्त्सना की। लेकिन ये बातें कोर्ट के लिखित आदेश में परिलक्षित नहीं होने से तीन बड़े सवाल खड़े हो रहे हैं। पहला, रणवीर के पुलिस के सामने पेश हुए बगैर संविधान के अनुच्छेद-32 के तहत जमानत की अर्जी सीधे सुप्रीम कोर्ट में कैसे दायर हो सकती है? दूसरा, आम लोगों के मुकदमों की लिस्टिंग और सुनवाई कई महीनों के बाद होती है। लेकिन इस मामले में अर्जेंट लिस्टिंग के बाद राज्य सरकारों का पक्ष सुने बगैर ही अंतरिम जमानत की राहत कैसे मिल गई? तीसरा, अश्लील कंटेंट पर रोक लगाने के लिए जजों ने केंद्र सरकार के वकील से सख्त कार्रवाई और रिपोर्ट की मांग की। लेकिन इसका जिक्र सुप्रीम कोर्ट के लिखित आदेश में नहीं है। इलाहाबाद हाईकोर्ट में एक 95 साल के बूढ़े व्यक्ति ने मामले की सुनवाई नहीं होने पर सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी। तब हाईकोर्ट में लम्बित मामलों और जजों के रिक्त पदों पर सख्त टिप्पणी करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि किसी एक मामले पर जल्द सुनवाई ठीक नहीं है। कई दशकों तक जेल में बंद रहे नेल्सन मंडेला ने कहा था कि वंचित वर्ग के साथ हो रहे बर्ताव के अनुसार ही राज्य की सफलता का मूल्यांकन होना चाहिए। न्यायिक सुधार के नाम पर सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट की चर्चा होती है। लेकिन असल समस्या जिला अदालतों की है, जहां 4.59 करोड़ से ज्यादा मुकदमे लम्बित हैं। इनमें अधिकांश आपराधिक हैं। शातिर और बड़े अपराधी कानून की गिरफ्त से बाहर हैं, लेकिन महंगी कानूनी व्यवस्था के चलते अशिक्षित, गरीब, वंचित वर्ग के लोग जेलों में बंद हैं। 1400 जेलों में लगभग 5.3 लाख लोग कैद हैं। दिल्ली हाईकोर्ट के अनुसार ट्रेनों की क्षमता से ज्यादा टिकट जारी नहीं होने चाहिए। फिर गरीब कैदियों को अमानवीय तरीके से जेलों में ठूंसना तो नितांत असंवैधानिक है। जल्द सुनवाई और विचाराधीन कैदियों की रिहाई से जुड़े 5 पहलुओं को समझना जरूरी है।
1. यूएपीए से जुड़े नवीनतम मामले में सुप्रीम कोर्ट के जज पारदीवाला ने कहा है कि विचाराधीन कैदी के रूप में किसी को जेल में लम्बे समय तक रखना, संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत आरोपी के त्वरित सुनवाई के अधिकार का उल्लंघन है। एक अन्य पुराने फैसले के अनुसार जेलों में बंद बेगुनाह कैदियों के संवैधानिक अधिकारों के हनन के लिए पुलिस और सरकार के साथ जज भी जिम्मेदार हैं। जेल में गलत तरीके से बंद रखने के खिलाफ कई जजों ने पीड़ित व्यक्ति को हर्जाना भी दिलाया है।
2. सुप्रीम कोर्ट के नए फैसले के अनुसार अनुच्छेद-224-ए के तहत हाईकोर्ट में एड-हॉक जजों से आपराधिक मुकदमों की अपीलों पर सुनवाई होगी। दिल्ली में नई सरकार के गठन के पहले ही मुख्य सचिव ने अस्थायी कर्मियों की छंटनी का आदेश दे दिया। अगर सरकार में अस्थायी कर्मचारी नहीं हो सकते तो फिर न्यायपालिका में अस्थायी जजों की भर्ती का क्या औचित्य है? संवैधानिक अदालतों में 40 फीसदी जजों के रिक्त पदों पर नियमित जजों की नियुक्ति करने के बजाय एड-हॉक जजों से मर्ज का इलाज कैसे होगा?
3. सुप्रीम कोर्ट के नवीनतम आदेश के अनुसार सीआरपीसी की धारा-432 और बीएनएसएस (भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता) की धारा-473 के तहत पात्रता रखने वाले सभी दोषियों की माफी अर्जी पर विचार करना राज्यों की जिम्मेदारी है। कानून और सुप्रीम कोर्ट के फैसलों पर अमल के लिए राज्य सरकारों को जिम्मेदार ठहराना नाकाफी है।
4. दिलचस्प बात यह है कि पुलिस, सरकारी वकील, जज, जेल और विधिक सेवा- सभी सरकारी पैसे से संचालित होते हैं। गरीब कैदियों की मदद के लिए राष्ट्रीय, राज्य और जिला स्तर पर विधिक सेवा का प्रावधान है। सुप्रीम कोर्ट के जज दीपांकर दत्ता के अनुसार नाल्सा (राष्ट्रीय कानूनी सेवा प्राधिकरण) के पास जजों की आवभगत के लिए पैसे हैं, लेकिन गरीब वादियों की मदद नहीं होती।
5. नए आपराधिक कानून में बीएनएसएस की धारा-479 के तहत जिन विचाराधीन कैदियों ने आधी या एक तिहाई सजा पूरी कर ली हो, उनकी रिहाई होनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के अगस्त 2024 के आदेश के अनुसार इसे दो महीने में पूरा करके संविधान की 75वीं वर्षगांठ के समारोह को सफल बनाना था। गरीब वर्ग के कैदियों के लिए सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार जिला अदालतों के जजों की जवाबदेही सुनिश्चित करने की जरूरत है। आज गरीब, वंचित, अशिक्षित वर्ग के लाखों लोग जेलों में बंद हैं। दिल्ली हाईकोर्ट के अनुसार ट्रेनों की क्षमता से ज्यादा टिकट जारी नहीं होने चाहिए। फिर कैदियों को अमानवीय तरीके से जेलों में ठूंसना भी तो असंवैधानिक है। (ये लेखक के अपने विचार हैं।)
सुप्रीम कोर्ट के जजों ने रणवीर इलाहाबादिया के कथन को अश्लील, अमर्यादित और आपत्तिजनक मानते हुए उसकी भर्त्सना की। लेकिन ये बातें कोर्ट के लिखित आदेश में परिलक्षित नहीं होने से तीन बड़े सवाल खड़े हो रहे हैं। पहला, रणवीर के पुलिस के सामने पेश हुए बगैर संविधान के अनुच्छेद-32 के तहत जमानत की अर्जी सीधे सुप्रीम कोर्ट में कैसे दायर हो सकती है? दूसरा, आम लोगों के मुकदमों की लिस्टिंग और सुनवाई कई महीनों के बाद होती है। लेकिन इस मामले में अर्जेंट लिस्टिंग के बाद राज्य सरकारों का पक्ष सुने बगैर ही अंतरिम जमानत की राहत कैसे मिल गई? तीसरा, अश्लील कंटेंट पर रोक लगाने के लिए जजों ने केंद्र सरकार के वकील से सख्त कार्रवाई और रिपोर्ट की मांग की। लेकिन इसका जिक्र सुप्रीम कोर्ट के लिखित आदेश में नहीं है। इलाहाबाद हाईकोर्ट में एक 95 साल के बूढ़े व्यक्ति ने मामले की सुनवाई नहीं होने पर सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी। तब हाईकोर्ट में लम्बित मामलों और जजों के रिक्त पदों पर सख्त टिप्पणी करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि किसी एक मामले पर जल्द सुनवाई ठीक नहीं है। कई दशकों तक जेल में बंद रहे नेल्सन मंडेला ने कहा था कि वंचित वर्ग के साथ हो रहे बर्ताव के अनुसार ही राज्य की सफलता का मूल्यांकन होना चाहिए। न्यायिक सुधार के नाम पर सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट की चर्चा होती है। लेकिन असल समस्या जिला अदालतों की है, जहां 4.59 करोड़ से ज्यादा मुकदमे लम्बित हैं। इनमें अधिकांश आपराधिक हैं। शातिर और बड़े अपराधी कानून की गिरफ्त से बाहर हैं, लेकिन महंगी कानूनी व्यवस्था के चलते अशिक्षित, गरीब, वंचित वर्ग के लोग जेलों में बंद हैं। 1400 जेलों में लगभग 5.3 लाख लोग कैद हैं। दिल्ली हाईकोर्ट के अनुसार ट्रेनों की क्षमता से ज्यादा टिकट जारी नहीं होने चाहिए। फिर गरीब कैदियों को अमानवीय तरीके से जेलों में ठूंसना तो नितांत असंवैधानिक है। जल्द सुनवाई और विचाराधीन कैदियों की रिहाई से जुड़े 5 पहलुओं को समझना जरूरी है।
1. यूएपीए से जुड़े नवीनतम मामले में सुप्रीम कोर्ट के जज पारदीवाला ने कहा है कि विचाराधीन कैदी के रूप में किसी को जेल में लम्बे समय तक रखना, संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत आरोपी के त्वरित सुनवाई के अधिकार का उल्लंघन है। एक अन्य पुराने फैसले के अनुसार जेलों में बंद बेगुनाह कैदियों के संवैधानिक अधिकारों के हनन के लिए पुलिस और सरकार के साथ जज भी जिम्मेदार हैं। जेल में गलत तरीके से बंद रखने के खिलाफ कई जजों ने पीड़ित व्यक्ति को हर्जाना भी दिलाया है।
2. सुप्रीम कोर्ट के नए फैसले के अनुसार अनुच्छेद-224-ए के तहत हाईकोर्ट में एड-हॉक जजों से आपराधिक मुकदमों की अपीलों पर सुनवाई होगी। दिल्ली में नई सरकार के गठन के पहले ही मुख्य सचिव ने अस्थायी कर्मियों की छंटनी का आदेश दे दिया। अगर सरकार में अस्थायी कर्मचारी नहीं हो सकते तो फिर न्यायपालिका में अस्थायी जजों की भर्ती का क्या औचित्य है? संवैधानिक अदालतों में 40 फीसदी जजों के रिक्त पदों पर नियमित जजों की नियुक्ति करने के बजाय एड-हॉक जजों से मर्ज का इलाज कैसे होगा?
3. सुप्रीम कोर्ट के नवीनतम आदेश के अनुसार सीआरपीसी की धारा-432 और बीएनएसएस (भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता) की धारा-473 के तहत पात्रता रखने वाले सभी दोषियों की माफी अर्जी पर विचार करना राज्यों की जिम्मेदारी है। कानून और सुप्रीम कोर्ट के फैसलों पर अमल के लिए राज्य सरकारों को जिम्मेदार ठहराना नाकाफी है।
4. दिलचस्प बात यह है कि पुलिस, सरकारी वकील, जज, जेल और विधिक सेवा- सभी सरकारी पैसे से संचालित होते हैं। गरीब कैदियों की मदद के लिए राष्ट्रीय, राज्य और जिला स्तर पर विधिक सेवा का प्रावधान है। सुप्रीम कोर्ट के जज दीपांकर दत्ता के अनुसार नाल्सा (राष्ट्रीय कानूनी सेवा प्राधिकरण) के पास जजों की आवभगत के लिए पैसे हैं, लेकिन गरीब वादियों की मदद नहीं होती।
5. नए आपराधिक कानून में बीएनएसएस की धारा-479 के तहत जिन विचाराधीन कैदियों ने आधी या एक तिहाई सजा पूरी कर ली हो, उनकी रिहाई होनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के अगस्त 2024 के आदेश के अनुसार इसे दो महीने में पूरा करके संविधान की 75वीं वर्षगांठ के समारोह को सफल बनाना था। गरीब वर्ग के कैदियों के लिए सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार जिला अदालतों के जजों की जवाबदेही सुनिश्चित करने की जरूरत है। आज गरीब, वंचित, अशिक्षित वर्ग के लाखों लोग जेलों में बंद हैं। दिल्ली हाईकोर्ट के अनुसार ट्रेनों की क्षमता से ज्यादा टिकट जारी नहीं होने चाहिए। फिर कैदियों को अमानवीय तरीके से जेलों में ठूंसना भी तो असंवैधानिक है। (ये लेखक के अपने विचार हैं।)