पॉजिटिव स्टोरी- गुड़ बेचकर 8 करोड़ का बिजनेस:हर दिन दो लाख की सेल; मां की कैंसर से मौत हुई, तो छोड़ा विदेश जाने का सपना
पॉजिटिव स्टोरी- गुड़ बेचकर 8 करोड़ का बिजनेस:हर दिन दो लाख की सेल; मां की कैंसर से मौत हुई, तो छोड़ा विदेश जाने का सपना
‘2013-14 की बात है। बड़ा भाई ऑस्ट्रेलिया में था। मुझे कह रहा था कि तुम भी विदेश आ जाओ, लेकिन इसी बीच मां को कैंसर हो गया। दो साल तक हॉस्पिटल, घर यहां-वहां भागते रहे। 2016 के आस-पास मां की डेथ हो गई। खेतों में काम करने वाली महिलाएं ही घर पर हमारे लिए खाना बना देती थीं। घर में पापा अकेले हो गए। तब लगा कि मैं भी विदेश चला जाऊंगा, तो पापा कैसे रहेंगे। उस वक्त एग्रीकल्चर की पढ़ाई कर रहा था। मैंने विदेश जाने का सपना छोड़ दिया। आज देखिए कि लोग 40 लाख, 50 लाख खर्च करके, एजेंट को पैसे देकर दो नंबर से विदेश जा रहे हैं और इस कदर वापस आ रहे हैं। इनके पैसे भी मिट्टी में चले जा रहे हैं। मैंने महज लाख रुपए से इस गुड़ की फैक्ट्री की शुरुआत कर दी। आज 100 से ज्यादा लोग काम कर रहे हैं। पूरी टीम एक परिवार के जैसी लगती है। इससे अच्छी बात पंजाब में रहते हुए क्या हो सकती है।’ जालंधर से तकरीबन 90 किलोमीटर दूर गुरदासपुर का एक इलाका है- सलोपुर। यहीं के रहने वाले कौशल कुमार गुड़ के डिब्बे उठाते हुए ये बातें कह रहे हैं। जालंधर से जब मैं कौशल की फैक्ट्री के लिए निकला, तो रास्ते में जहां तक नजरें गईं, गन्ने के खेत ही खेत नजर आ रहे हैं। मजदूर गन्ने की कटाई कर रहे हैं। कौशल कहते हैं, ‘पंजाब के इन इलाकों में गन्ने का बहुत बड़ा प्रोडक्शन है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक सालाना 84 हजार किलोग्राम प्रति हेक्टेयर गन्ने की खेती होती है। हम अपनी और कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग मिलाकर 200 एकड़ में गन्ने की खेती कर रहे हैं। बचपन से खेती में इंट्रेस्ट था। 2016 की बात है। पढ़ाई के साथ-साथ मैं खेती करने लगा। देखा कि बड़ी-बड़ी कंपनियां किसानों से अनाज खरीदकर अपने मुताबिक रेट तय करके मार्केट में बेचती हैं, लेकिन किसानों को इससे कोई फायदा नहीं होता। अनाज किसान उपजाते हैं और प्रॉफिट कंपनी को मिलता है। मुझे लगा कि यदि किसी फसल से हम खुद प्रोडक्ट बनाते हैं, तब मार्केट प्रॉफिट ज्यादा हो सकता है। कब तक धरना, प्रदर्शन, सरकार के सामने हाथ फैलाते रहेंगे।’ कौशल की फैक्ट्री में कई महिलाएं काम कर रही हैं। वे गुड़ की पैकेजिंग कर रही हैं। फैक्ट्री के एंट्री गेट के बगल में गन्ने का ढेर लगा है। बगल में गन्ने से रस निकालने की मशीन लगी हुई है। कौशल ढेर से एक गन्ना खींचते हुए कहते हैं, ‘पापा शुरू से गन्ने की खेती कर रहे थे। जब मैंने एग्रीकल्चर की पढ़ाई शुरू की, तब लगा कि गन्ने से बने प्योर गुड़ का मार्केट में कोई ब्रांड नहीं है। हम दोनों ने मिलकर गन्ने से गुड़ बनाकर बेचना शुरू किया। रोज तकरीबन 70 किलोग्राम गुड़ बेचते थे। खुद से बाइक पर लादकर मंडी ले जाना और फिर गुड़ बेचना। उस साल करीब 12 लाख का गुड़ बेचा था। आसपास के लोग कहते थे- नौकरी नहीं मिली होगी, इसलिए पढ़-लिखकर अनपढ़ वाला काम कर रहा है। गुड़ बेच रहा है। उसके बाद मैंने सरकारी नौकरी की भी तैयारी की और पेपर दिया। पास भी हो गया। फिर लगा कि करूंगा तो बिजनेस ही।’ कौशल मुझे अपना पैकेजिंग स्टोर और प्रोडक्शन यूनिट दिखा रहे हैं। आधा किलोग्राम, एक किलोग्राम के डिब्बे में गुड़ के छोटे-छोटे टुकड़े पैक करके रखे हुए हैं। कौशल कहते हैं, ‘पूरी पैकेजिंग के पीछे नवनूर कौर का माइंड है। वह हमारी बिजनेस पार्टनर हैं। ब्रांडिंग, मार्केटिंग, सबकुछ नवनूर ही देखती हैं। दरअसल, नवनूर मेरे कॉलेज प्रोफेसर की बेटी हैं। दिल्ली से सटे गाजियाबाद से उन्होंने MBA किया है। 2019 की बात है। उस वक्त मैं गुड़ में अलग-अलग तरह के एक्सपेरिमेंट कर रहा था। नवनूर कॉलेज पासआउट होने के बाद बिजनेस एक्सप्लोर कर रही थीं। जब उन्हें गुड़ के प्रोडक्शन के बारे में पता चला, तो कहा- मैं आपके प्लांट आना चाहती हूं। गुड़ बनता कैसे है, इसे देखना चाहती हूं। तबसे से ही वो हमारे साथ जुड़ गईं।’ कौशल जो गुड़ बनाते हैं, उसमें कई कैटेगरी होती है। एक शक्कर की तरह है, तो दूसरा प्लेन और मसाले वाला। कौशल कहते हैं, ‘मार्केट में हमने देखा कि कोई गुड़ का ब्रांड नहीं है, जबकि हर घर में गुड़ का इस्तेमाल होता है। घर में, आसपास देखता था कि हर किसी को डायबिटीज की बीमारी है। हमने सोचा कि इस प्योर गुड़ को घर-घर पहुंचाकर चीनी से रिप्लेस किया जा सकता है। हमने गुड़ की अलग-अलग वैराइटी बनानी शुरू की, ताकि बड़ों के साथ-साथ बच्चों को भी यह खाने में टेस्टी लगे।’ कौशल की जहां पर फैक्ट्री है, वह पूरा गांव का इलाका है। रास्ते ऐसे हैं कि बमुश्किल ही गाड़ियां नजर आती हैं। कौशल उन दिनों को याद करते हुए कहते हैं, ‘हमने ऑनलाइन तो लोगों तक प्रोडक्ट पहुंचाना शुरू किया, लेकिन यहां ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म्स की बहुत कम सर्विस रही है। एक ऑर्डर 15-15 दिन में डिलीवर होते थे। इससे कस्टमर फीडबैक निगेटिव आने लगा। उसके बाद हमने हरियाणा के मानेसर में अपना वेयरहाउस सेटल किया। अब तीन से चार दिन में प्रोडक्ट की डिलीवरी हो जाती है। हर रोज हम 400 के करीब ऑर्डर डिलीवर कर रहे हैं। सेल करीब 2 लाख का है। सालाना टर्नओवर करीब 7-8 करोड़ का है।’ -------------------------- इस सीरीज की और स्टोरी पढ़िए... 1. पॉजिटिव स्टोरी- ऑनलाइन पलंग-कुर्सी बेचकर 300 करोड़ का बिजनेस:50 हजार कर्ज लेकर शुरू किया काम, आज हर महीने 4 हजार ऑर्डर 1991 का साल बीत रहा था। पापा ने दादा के साथ मिलकर लकड़ी से बने प्रोडक्ट को बेचने की दुकान खोल ली। उन्होंने पलंग, कुर्सी, टेबल जैसे प्रोडक्ट बनाने शुरू कर दिए। पहले तो आसपास के लोग ही लकड़ी का सामान खरीदकर ले जाते थे, फिर आसपास के शहर, दूसरे राज्यों से भी लोग आकर लकड़ी का सामान खरीदने लगे।’ कुर्सी, पलंग, सोफा जैसे फर्नीचर को ऑनलाइन बेचने वाली 300 करोड़ की कंपनी ‘सराफ फर्नीचर’ के को-फाउंडर रघुनंदन सराफ अपने पुराने दिनों को याद कर रहे हैं। फैक्ट्री में आसपास लकड़ी, फर्नीचर आइटम्स और पट्टी का अंबार लगा हुआ है। पूरी खबर पढ़िए... 2. पॉजिटिव स्टोरी- साड़ी के फॉल-अस्तर से डेढ़ करोड़ का बिजनेस:15 साल कॉर्पोरेट जॉब की, पत्नी की 3 लाख की सेविंग्स
‘2013-14 की बात है। बड़ा भाई ऑस्ट्रेलिया में था। मुझे कह रहा था कि तुम भी विदेश आ जाओ, लेकिन इसी बीच मां को कैंसर हो गया। दो साल तक हॉस्पिटल, घर यहां-वहां भागते रहे। 2016 के आस-पास मां की डेथ हो गई। खेतों में काम करने वाली महिलाएं ही घर पर हमारे लिए खाना बना देती थीं। घर में पापा अकेले हो गए। तब लगा कि मैं भी विदेश चला जाऊंगा, तो पापा कैसे रहेंगे। उस वक्त एग्रीकल्चर की पढ़ाई कर रहा था। मैंने विदेश जाने का सपना छोड़ दिया। आज देखिए कि लोग 40 लाख, 50 लाख खर्च करके, एजेंट को पैसे देकर दो नंबर से विदेश जा रहे हैं और इस कदर वापस आ रहे हैं। इनके पैसे भी मिट्टी में चले जा रहे हैं। मैंने महज लाख रुपए से इस गुड़ की फैक्ट्री की शुरुआत कर दी। आज 100 से ज्यादा लोग काम कर रहे हैं। पूरी टीम एक परिवार के जैसी लगती है। इससे अच्छी बात पंजाब में रहते हुए क्या हो सकती है।’ जालंधर से तकरीबन 90 किलोमीटर दूर गुरदासपुर का एक इलाका है- सलोपुर। यहीं के रहने वाले कौशल कुमार गुड़ के डिब्बे उठाते हुए ये बातें कह रहे हैं। जालंधर से जब मैं कौशल की फैक्ट्री के लिए निकला, तो रास्ते में जहां तक नजरें गईं, गन्ने के खेत ही खेत नजर आ रहे हैं। मजदूर गन्ने की कटाई कर रहे हैं। कौशल कहते हैं, ‘पंजाब के इन इलाकों में गन्ने का बहुत बड़ा प्रोडक्शन है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक सालाना 84 हजार किलोग्राम प्रति हेक्टेयर गन्ने की खेती होती है। हम अपनी और कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग मिलाकर 200 एकड़ में गन्ने की खेती कर रहे हैं। बचपन से खेती में इंट्रेस्ट था। 2016 की बात है। पढ़ाई के साथ-साथ मैं खेती करने लगा। देखा कि बड़ी-बड़ी कंपनियां किसानों से अनाज खरीदकर अपने मुताबिक रेट तय करके मार्केट में बेचती हैं, लेकिन किसानों को इससे कोई फायदा नहीं होता। अनाज किसान उपजाते हैं और प्रॉफिट कंपनी को मिलता है। मुझे लगा कि यदि किसी फसल से हम खुद प्रोडक्ट बनाते हैं, तब मार्केट प्रॉफिट ज्यादा हो सकता है। कब तक धरना, प्रदर्शन, सरकार के सामने हाथ फैलाते रहेंगे।’ कौशल की फैक्ट्री में कई महिलाएं काम कर रही हैं। वे गुड़ की पैकेजिंग कर रही हैं। फैक्ट्री के एंट्री गेट के बगल में गन्ने का ढेर लगा है। बगल में गन्ने से रस निकालने की मशीन लगी हुई है। कौशल ढेर से एक गन्ना खींचते हुए कहते हैं, ‘पापा शुरू से गन्ने की खेती कर रहे थे। जब मैंने एग्रीकल्चर की पढ़ाई शुरू की, तब लगा कि गन्ने से बने प्योर गुड़ का मार्केट में कोई ब्रांड नहीं है। हम दोनों ने मिलकर गन्ने से गुड़ बनाकर बेचना शुरू किया। रोज तकरीबन 70 किलोग्राम गुड़ बेचते थे। खुद से बाइक पर लादकर मंडी ले जाना और फिर गुड़ बेचना। उस साल करीब 12 लाख का गुड़ बेचा था। आसपास के लोग कहते थे- नौकरी नहीं मिली होगी, इसलिए पढ़-लिखकर अनपढ़ वाला काम कर रहा है। गुड़ बेच रहा है। उसके बाद मैंने सरकारी नौकरी की भी तैयारी की और पेपर दिया। पास भी हो गया। फिर लगा कि करूंगा तो बिजनेस ही।’ कौशल मुझे अपना पैकेजिंग स्टोर और प्रोडक्शन यूनिट दिखा रहे हैं। आधा किलोग्राम, एक किलोग्राम के डिब्बे में गुड़ के छोटे-छोटे टुकड़े पैक करके रखे हुए हैं। कौशल कहते हैं, ‘पूरी पैकेजिंग के पीछे नवनूर कौर का माइंड है। वह हमारी बिजनेस पार्टनर हैं। ब्रांडिंग, मार्केटिंग, सबकुछ नवनूर ही देखती हैं। दरअसल, नवनूर मेरे कॉलेज प्रोफेसर की बेटी हैं। दिल्ली से सटे गाजियाबाद से उन्होंने MBA किया है। 2019 की बात है। उस वक्त मैं गुड़ में अलग-अलग तरह के एक्सपेरिमेंट कर रहा था। नवनूर कॉलेज पासआउट होने के बाद बिजनेस एक्सप्लोर कर रही थीं। जब उन्हें गुड़ के प्रोडक्शन के बारे में पता चला, तो कहा- मैं आपके प्लांट आना चाहती हूं। गुड़ बनता कैसे है, इसे देखना चाहती हूं। तबसे से ही वो हमारे साथ जुड़ गईं।’ कौशल जो गुड़ बनाते हैं, उसमें कई कैटेगरी होती है। एक शक्कर की तरह है, तो दूसरा प्लेन और मसाले वाला। कौशल कहते हैं, ‘मार्केट में हमने देखा कि कोई गुड़ का ब्रांड नहीं है, जबकि हर घर में गुड़ का इस्तेमाल होता है। घर में, आसपास देखता था कि हर किसी को डायबिटीज की बीमारी है। हमने सोचा कि इस प्योर गुड़ को घर-घर पहुंचाकर चीनी से रिप्लेस किया जा सकता है। हमने गुड़ की अलग-अलग वैराइटी बनानी शुरू की, ताकि बड़ों के साथ-साथ बच्चों को भी यह खाने में टेस्टी लगे।’ कौशल की जहां पर फैक्ट्री है, वह पूरा गांव का इलाका है। रास्ते ऐसे हैं कि बमुश्किल ही गाड़ियां नजर आती हैं। कौशल उन दिनों को याद करते हुए कहते हैं, ‘हमने ऑनलाइन तो लोगों तक प्रोडक्ट पहुंचाना शुरू किया, लेकिन यहां ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म्स की बहुत कम सर्विस रही है। एक ऑर्डर 15-15 दिन में डिलीवर होते थे। इससे कस्टमर फीडबैक निगेटिव आने लगा। उसके बाद हमने हरियाणा के मानेसर में अपना वेयरहाउस सेटल किया। अब तीन से चार दिन में प्रोडक्ट की डिलीवरी हो जाती है। हर रोज हम 400 के करीब ऑर्डर डिलीवर कर रहे हैं। सेल करीब 2 लाख का है। सालाना टर्नओवर करीब 7-8 करोड़ का है।’ -------------------------- इस सीरीज की और स्टोरी पढ़िए... 1. पॉजिटिव स्टोरी- ऑनलाइन पलंग-कुर्सी बेचकर 300 करोड़ का बिजनेस:50 हजार कर्ज लेकर शुरू किया काम, आज हर महीने 4 हजार ऑर्डर 1991 का साल बीत रहा था। पापा ने दादा के साथ मिलकर लकड़ी से बने प्रोडक्ट को बेचने की दुकान खोल ली। उन्होंने पलंग, कुर्सी, टेबल जैसे प्रोडक्ट बनाने शुरू कर दिए। पहले तो आसपास के लोग ही लकड़ी का सामान खरीदकर ले जाते थे, फिर आसपास के शहर, दूसरे राज्यों से भी लोग आकर लकड़ी का सामान खरीदने लगे।’ कुर्सी, पलंग, सोफा जैसे फर्नीचर को ऑनलाइन बेचने वाली 300 करोड़ की कंपनी ‘सराफ फर्नीचर’ के को-फाउंडर रघुनंदन सराफ अपने पुराने दिनों को याद कर रहे हैं। फैक्ट्री में आसपास लकड़ी, फर्नीचर आइटम्स और पट्टी का अंबार लगा हुआ है। पूरी खबर पढ़िए... 2. पॉजिटिव स्टोरी- साड़ी के फॉल-अस्तर से डेढ़ करोड़ का बिजनेस:15 साल कॉर्पोरेट जॉब की, पत्नी की 3 लाख की सेविंग्स से बनाई कंपनी 'पाली का साड़ी फॉल, अस्तर, रूबिया, पॉपलीन देशभर में मशहूर है। मैं इसी तरह का कारोबार कर रहे अखिलेश जैन से मिलने आया हूं। सुबह के 10 बज रहे हैं। एक फैक्ट्री में अलग-अलग कलर में दर्जनों कपड़े के गट्ठर रखे हुए हैं। सामने एक शेड में 200 मीटर के थान के कपड़े को वर्टिकल टांगकर सुखाया जा रहा है। अखिलेश इशारा करते हुए कहते हैं, ‘अभी ये कपड़े जोधपुर फैक्ट्री से आ रहे हैं। पाली से जोधपुर 60 किलोमीटर है। सूखने के बाद इसी कपड़े को अलग-अलग साइज में काटकर साड़ी के फॉल, अस्तर के कपड़े, पॉपलीन-रूबिया बनाया जाता है।' पढ़िए पूरी खबर